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इस भूमिका के साथ मैं यह कहना चाहता हूं कि महापुरुषों के, प्रबुद्ध चितकों और अनुभवी तत्त्ववेत्ताओं के हजारों-हजार वचन, उपदेश, अनुभव और हित- शिक्षाएं हमारे वाङ् मय के पन्नों पर बिखरे पड़े हैं । उन छोटे-छोटे वचनों में सृष्टि की अनन्तज्ञान राशि इस प्रकार छिपी पड़ी है जिस प्रकार छोटे-छोटे सुमनों में प्रकृति का सौरभमय वैभव छिपा रहता है । अपेक्षा यही है कि उस अमूल्य वाङमय-कोष के द्वार उद्घाटित करें, और विवेक - चक्षु खोलकर उनका अनुशीलन-चिंतन करें। हो सकता है किसी एक ही वचन - मणि से जीवन की, जन्म-जन्म की दरिद्रता दूर हो जाय, और सत्य का अनन्त प्रकाश हृदय में जगमगा उठे ।
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बचपन से ही मुझे प्राचीन साहित्य के अवलोकन - अनुशीलन की रुचि रही है, और साथ ही संग्रह - रुचि थी । जो भी शिक्षात्मक वचन कहीं मिला उसे लिखने की, रट लेने की आदत थी । कुछवर्ष पूर्व भगवान महावीर के वचनों के इस प्रकार के मेरे चार संकलन प्रकाशित भी हुए थे सम्मतिवाणी, स्वस्थ अध्ययन, धर्मपथ और जागरण ! उस प्रकाशन के पश्चात् जैन जगत में सूक्तिसाहित्य के प्रकाशन की एक स्वस्थ परम्परा चल पड़ी, कई शुभ प्रयत्न हुए, जिनमें सर्वोत्तम प्रयत्न कविरत्न उपाध्याय श्री अमर चन्द जी महाराज द्वारा संपादित 'सूक्ति त्रिवेणी' कहा जा सकता है । सूक्ति त्रिवेणी में जैन आगम साहित्य से आगे बढ़ने का प्रयत्न हुआ है भाष्य, निर्युक्ति चूर्णि तथा दिगम्बर जैन साहित्य का भी आलोड़न हुआ है । बौद्ध एवं वैदिक वाङ् मय की सूक्तियां भी प्रचुर मात्रा के संकलित की गई हैं । वैसा प्रयत्न शायद अपने ढंग का पहला ही था ।
मेरे मन में कल्पना थी - जैन वाङमय, जिसके प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य का आलोड़न तो किया गया है. लेकिन संस्कृत वाङ् मय की सूक्तियाँ विशेष प्राप्त नहीं होती, जबकि वह भी प्रचुर उपदेश