________________
२५
सेवा-धर्म
१. यावच्चेणं तित्थयरनामगोयं कम्मं निबंधेइ ।
-उत्तराध्ययन २६३ आचार्यादि की वैयावृत्त्य करने से जीव तीर्थकर नाम-गोत्रकर्म का उपार्जन करता है।
जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा न गवेसइ, न गवसंतं वा साइज्जइ.......आवज्जइ चउम्मासियं परिहारठाणं अणुग्घाइयं।
-निशीथ १०॥३७ यदि कोई समर्थ माधु किसी साधु को बीमार सुनकर एवं जानकर बेपरवाही से उसकी सार-संभाल न करे तथा न करने वाले की अनुमोदना करे तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त
आता है। ३. वैयावृत्त्यं भक्तादिभिधर्मोपग्रहकारिवस्तुभिरुपग्रहकरणे।
-स्थानांग ५।१ टीका धर्म में सहारा देनेवाली अाहार आदि वस्तुओं द्वारा उपग्रह-सहा
यता करने के अर्थ में वैयावृत्त्य शब्द आता है । ४. असंगिहीय परिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्ट्यव्वं भवइ ।
स्थानांग । अनाश्रित एवं असहायजनो को सहयोग एवं आश्रय देने के लिए तत्पर रहना चाहिए।