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________________ तितिक्षा १. एस वोरे पसंसिए, जे ण णिविज्जति आदाणाए। -आचारांग १।२।४ जो अपनी साधना में उद्विग्न नहीं होता, वही वीर साधक प्रशं सित होता है। २. वोसिरे सव्वसो कार्य, न मे देहे परीसहा। -आचारांग १८८।२१ सब प्रकार से शरीर का मोह छोड़ दीजिए, फलतः परीषहों के आने पर विचार कीजिए कि मेरे शरीर में परीषह है ही नहीं। ३. दुक्खेण पुढे धुयमायएज्जा। -सूत्रकृतांग ११७।२६ दुःख आ जाने पर भी मन पर संयम (समता) रखना चाहिए । ४. तितिक्खं परमं नच्चा। .- सूत्रकृतांग १।८।२६ तितिक्षा को परम-धर्म समझ कर आचरण करो। ५. कुच्चमाणो न संजले। -सूत्रकृतांग ११६३१ साधक को कोई दुर्वचन कहे, तो भी वह उस पर गरम न हो, क्रोध न करे। ७७
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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