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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं के कारण मनुष्य के विद्यमान गुण भी नष्ट हो जाते हैं । ५. गुणेहिं साहू, अगुणेहि साहू, गिण्हाहि साहू, गुण मुञ्चसाहू ।
"-परावकालिक ६।३.११ सद्गुण से साधु कहलाता है, दुर्गुण से असाधु । अतएव दुर्गुणों को त्याग कर सद्गुणों को ग्रहण करो। कखे गुणे जाव सरीरभेऊ ।
-उत्तराध्ययन ४।१३ जब तक जीवन है (शरीर-भेद न हो) सद्गुणों की आराधना करते रहना चाहिए।
नवं वयो न दोषाय न गुणाय दशान्तरम् । नवोपीन्दु जनाालदी दहत्यग्निर्जरनपि ।।
-आदिपुराण १८।१२० यह मानना ठीक नहीं है कि नई उम्र (जवानी) दोष से युक्त एवं वृद्ध अवस्था गुणों से भरपूर ही होती है। क्या नव-चन्द्र लोगों के मन को प्रसन्न नही करता और क्या पुरानी अग्नि जलाती नहीं ? भाव है, वस्तु में गुण देखना चाहिए नया-पुराना
पन नहीं। #. गुणगृह्योहि सज्जनः।
-आदिपुराण ११३७ सज्जन सदा गुणों को ही ग्रहण करते है।