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________________ २२ सद्गुण अपनायो ! गुणसुठ्ठियस्स वयणं, घयपरिसितुव्व पावओ भाइ । गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो॥ -बृहत्कल्पभाष्य २४५ गुणवान व्यक्ति का वचन घृतसिंचित अग्नि की तरह तेजस्वी होता है, जबकि गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेहरहित (तैल शून्य) दीपक की तरह तेज और प्रकाश से शून्य होता है। २. आयरियस्स वि सीसो सरिसो सव्वे हि वि गुणहिं । -उत्तराध्ययननियुक्ति ५८ यदि शिष्य गुण सम्पन्न है, तो वह अपने आचार्य के समकक्ष माना जाता है। अंबत्तणण जीहाइ कूइया होइ खीरमुदगम्मि । हंसो मोत्तूण जलं, आपियइ पयं तह सुसीसो ॥ -बृहत्कल्पभाष्य ३४७ हंस जिस प्रकार अपनी जिह्वा की अम्लता-शक्ति के द्वारा जलमिश्रित दूध में से जल को छोड़कर दूध को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार सुशिष्य दुर्गुणों को छोड़कर सद्गुणों को ग्रहण करता है। ४. चउहि गणेहिं संते गुणे नासेज्जाकोहणं, पडिनिवेसेणं, अकयण्णुयाए मिच्छित्ताभिणिवेसेणं । -स्थानांग ४४ क्रोध, ईर्ष्या-डाह, अकृतज्ञता और मिथ्या आग्रह-इन चार दुर्गुणों ३.
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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