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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं जो वि पगासो बहुसो, गुणिओ पचक्खओ न उवलद्धो। जच्चंधस्स व चन्दो, फुडो वि संतो तहा स खलु ।।
-वृहत्कल्पभाष्य १२२४ शास्त्र का बार-बार अध्ययन कर लेने पर भी यदि उसके अर्थ की साक्षात् स्पष्ट अनुभूति न हुई हो, तो वह अध्ययन वैसा ही अप्रत्यक्ष रहता है, जैसा कि जन्मान्ध के समक्ष चन्द्रमा प्रकाशमान होते हुए भी अप्रत्यक्ष ही रहता है ।
यस्माद् रागद्वषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति सद्धर्मे । संत्रायते च दुःखा-च्छास्त्रमिति निरुच्यते सद्भिः ॥
-प्रशमरति १८७ राग-द्वेष से उद्धत चित्तवालों को धर्म में अनुशासित करता है एवं उन्हें दुःख से बचाता है, अतएव वह सत्पुरुषों द्वारा 'शास्त्र' कहलाता है (शास्त्र शब्द में दो धातुएं मिली हैंशाशु और त्रेड-इनका अर्थ क्रमश: अनुशासन करना और रक्षा करना है ।) आलोचनागोचरे ह्यर्थे शास्त्र तृतीयं लोचनं पुरुषाणाम् ।
-नीतिवाक्यामृत ५॥३५ आलोचना योग्य पदार्थों को जानने के लिये शास्त्र मनुष्य का तीसरा नेत्र है । अतः शास्त्र का स्वाध्याय करते रहना चाहिए।