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लोभ
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प्रथममशनपानप्राप्तिवाञ्छाविहस्ता स्तदनु वसनवेश्माऽलकृतिव्यग्रचित्ताः । परिणयनमपत्यावाप्तिमिष्टेन्द्रियार्थान्, सततमभिलषन्तः स्वस्थतां क्वाश्नुवारन् ।
--शान्तासुधारस-कारुण्यभावना रोटी, पानी, कपड़ा, घर, आभूपण, स्त्री, सन्तान एव इन्द्रियों के इष्ट शब्दादि विषयों की अभिलाषा में व्याकुल बने हुए संसारी जीव स्वस्थता का स्वाद कैसे ले सकते है ?
भूशय्या भक्ष्यमशनं, जीर्णवासो वनं गृहम् । तथापि निःस्पृहस्याहो ! चक्रिणोप्यधिकं सुखम् ।।
-ज्ञानसार चाहे भूमि का शयन है, भिक्षा का भोजन है, पुराने कपड़े हैं एवं वन में घर है, फिर भी निःस्पृह मनुष्य को चक्रवर्ती से भी अधिक सुख है।
लोभमूलानि पापानि, रसमूलानि व्याधयः । स्नेहमूलानि शोकानि त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भव ॥
उपदेशमाला लोभ पापों का मूल है, रसासक्ति रोगो का मूल है और स्नेह शोकों का मूल है । इन तीनों को त्यागकर सुखी बनो !
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