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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं १२. सक्का वण्ही णिवारेतु, वारिणा जलितो बहिं । सव्वोदही जलेणावि, मोहग्गी दुण्णिवारओ ।।
-ऋषिभाषित ३।१० बाहर से जलती हुई अग्नि को थोड़े से जल से शान्त किया जा सकता है। किन्तु मोह अर्थात् तृष्णारूपी अग्नि को समस्त समुद्रों
के जल से भी शान्त नहीं किया जा सकता। १३. भवतण्हा लया वत्ता भीमा भीमफलोदया।
-उत्तराध्ययन २३१४८ संसार की तृष्णा भयंकर फल देनेवाली विप-बेल है ।
सव्वं जगं जइ तुम्भं, सव्वं वा वि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं ने ताणाय तं तव ।।
-उत्तराध्ययन १४॥३६ यदि यह जगत् और सब जगत् का सब धन भी तुम्हें दे दिया जाय, तब भी वह (जरा-मृत्यु आदि से) तुम्हारी रक्षा करने में
अपर्याप्त-असमर्थ है। १५. इच्छा लोभंन सेविज्जा।
--आचारांग दादा२३ इच्छा एवं लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए। १६. इच्छा बहुविहा लोए, जाए बढो किलिस्सति । तम्हा इच्छामणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेधति ॥
-ऋषिभाषित ४०१ संसार में इच्छाएं अनेक प्रकार की हैं, जिनसे बंधकर जीव दुःखी होता है । अतः इच्छा को अनिच्छा से जीतकर साधक सुख पाता