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६. किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभं अणुपविठे जीवे, कालं करेइ नेरइएसु उववज्जति ।
-स्थानांग ४२ कृमिराग अर्थात मजीठ के रंग के समान जीवन में कभी नहीं
छूटनेवाला लोभ आत्मा को नरकगति की ओर ले जाता है। ७. इच्छालोभिते मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू ।
-स्थानांग ६३ ____ लोभ, मुक्तिमार्ग का बाधक है। ८. लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ।
---प्रश्नव्याकरण २२२ मनुष्य लोभग्रस्त होकर झूठ बोलता है।
कसिणं पि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेज इक्कस्स । तेणावि से ण संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ।
-उत्तराध्ययन ८।१६ धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक व्यक्ति को दे दिया जाय, तब भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं हो सकता- इस प्रकार आत्मा की यह तृष्णा बड़ी दुष्पूर (पूर्ण होना कठिन) है।
जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई । दो मासकय कज्जं, कोडिए वि न निट्ठियं ।
-उत्तराध्ययन ८१७ ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यो-त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरन्तर बढ़ता ही जाता है। दो माशा सोने से संतुष्ट
होनेवाला करोड़ो (स्वर्णमुद्राओं) से भी सन्तुष्ट नहीं हो पाया। ११. लोभ विजएणं संतोसं जणयई।
-उत्तराध्ययन २६७० लोभ को जीत लेने से संतोष की प्राप्ति होती है।
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