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३. परिव्राट-पुगव आचार्य प्रभव
स्तेन सम्राट् प्रभव उच्चकोटि का परिवाट् बना, श्रमण सम्राट् बना, यह जैन इतिहास का अनुपम पृष्ठ है। __ प्रभव कात्यायन गोत्रीय क्षत्रिय विन्ध्य राजा का पुत्र था । विन्ध्य पर्वत की घाटियो के आसपास वी०नि० ३० (वि० पू० ५००) वर्ष पूर्व वह जन्मा। राजमहलो मे पला-पुसा और एक दिन पितृस्नेह से विहीन होकर चोरो की पल्ली मे पहुच गया।जनसमूह को लूटता, कूदता-फादता विन्ध्याचल की घाटियो में शेर की तरह निर्भीक दहाडता प्रभव एक दिन पाच सौ चोरो का नेता बन बैठा। अवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी नामक दो विद्याए भी प्रभव के पास थी। अवस्वापिनी विद्या के द्वारा वह सवको निद्राधीन कर सकता था और तालो
द्घाटिनी विद्या के द्वारा तालो को खोल सकता था। अपनी इन दो विद्याओ से स्तेनाधिपति का बल बढा हुआ था। महाराज श्रेणिक का सैन्य दल भी इस गिरोह मेकापता था ।
एक दिन वह दल श्रेष्ठी पुत्र जम्बू के विवाह मे आए हुए वैभव को लूटने • ऋपभदत्त के मेरु-शिखरोपम गृह मे प्रविष्ट हुआ। अवस्वापिनी विद्या के द्वारा
सवको नीद की गोद मे सुलाकर तालोद्घाटिनी विद्या का प्रयोग किया। ताले टूट गए। मधुविन्दु पर जैसे मक्खिया भनभनाती हुई लपकती है वैसे ही इस गिरोह के पजे धन की पेटियो पर जा गिरे। गिद्ध की तरह उनकी दूरगामिनी दृष्टि पेटियो मे छिपे हीरो और पन्नो को बटोरने में सहयोग कर रही थी। __ जम्बू ने चोरो के द्वारा अपनी सम्पत्ति को अपहरण करते हुए देखा पर न वह कुपित हुआ, न क्षुब्ध हुआ। स्तेनदल के कई सदस्यो ने निद्राधीन अतिथिजनो के पहने हुए आभूपणो को शरीर पर से उतारने का प्रयत्न किया। "दस्युजनो । विवाहोपलक्ष्य मे आए हुए मेरे मित्रो के अलकारो पर हाथ मत लगाओ। मैं निशाप्रहरी की भाति खुली आखो से तुम्हे देख रहा हू" " अज्ञात दिशा से बढती हुई ये शब्द-तरगे स्तेनदल के कानो से टकराई । तरगो की टकराहट के साथ ही एक विचित घटना घट गई।
दस्युदल का नेता प्रभव पहरेदारी करता हुआ घूम रहा था। स्तेनदल ने