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आचार्यों के काल का सक्षिप्त सिंहावलोकन २३
जैनाचार्यो के शास्त्रार्थी, प्रवचनो एव दूरगामी यात्राओ से उत्तर-दक्षिण का भारत भूमण्डल जैन सस्कारो से प्रभावित हो गया था। इस युग मे जैनाचार्यो ने जो कुछ किया वह अनुपम एव असाधारण था । साहित्य की महान् समृद्धि और राजनीति पर धर्मनीति की विजय जैनाचार्यों की सूझ-बूझ का परिणाम था । एक सहस्र वर्ष के इस काल का अकुश एक प्रकार से जैनाचार्यों के हाथ मे ही था । शासक वर्ग अनन्य परामर्शदाता थे । जैन धर्म विकास के लिए यह युग महान् उत्कर्ष का युग था ।
नवीन युग
उत्कर्ष का चरम विन्दु क्रान्ति का आमन्त्रण है । क्रान्ति की निष्पत्ति नवीन प्रभात का उदय है | आचार्य देवद्धिगणी के वाद वीर निर्वाण की द्वितीय सहस्राब्दि के पूर्वार्ध मे चैत्यवासी सम्प्रदाय को निर्वाध गति से पनपने का अवसर मिला । कठोर चर्या पालन करने वाले सुविहितमार्गी श्रमण चैत्यवासी श्रमणो के बढते हुए वर्चस्व के सामने पराभूत हो गए। श्रमण वर्ग, यति वर्ग एव भट्टारक वर्ग मे सुविधावाद पनपने लगा । उग्र विहार चर्या को छोडकर वे मठाधीश बन गए । जन, मत्र, तत्त्रो के प्रयोग से वे राजसम्मान पाकर राजगुरु कहलाने लगे । छतचामर आदि को नि सकोच भाव से धारण कर वे राजशाही ठाट मे रहने लगे । जनमानस मे इन सारी प्रवृत्तियो के प्रति भारी असन्तोप था । असन्तोप का ज्वार वीर निर्वाण की इक्कीसवी शताब्दी मे प्रथम चरण मे विस्तार के साथ प्रकट हुआ । साध्वाचार की विश्वखलित मर्यादाओ ने क्रान्ति को जन्म दिया ।
क्रान्ति का प्रथम चरण
उस समय जैन सम्प्रदायो मे सर्वत्र क्रान्ति की आधी उठ रही थी । दिगम्बर परपरा मे वी०नि० १६७५ से २०४२ (वि० १५०५ से १५७२ ) के बीच क्रान्तिकारी तारण स्वामी हुए । उन्होने मूर्तिपूजा के विरोध मे एक क्रान्ति की। इस क्रान्ति की निष्पत्ति तारण तरण समाज के रूप में हुई । इस समाज के अनुयायी मन्दिरो के स्थान पर सरस्वती भवन बनाने और मूर्तियों के स्थान पर शास्त्रो की प्रतिष्ठा करने लगे थे । उस समय भट्टारक शक्ति बलवान थी । उसके सामने यह नवोदित सघ अधिक पनप नही सका है ।
भट्टारक सम्प्रदाय के शिथिलाचार पर कइयो के मन मे आग भभक रही थी । कुछ लोग आचार्य कुन्दकुन्द और अमृतचन्द के ग्रन्थो का अध्ययन कर अध्यात्म की ओर झुके और वे अध्यात्मी कहलाने लगे । पडित बनारसीदास जी का समर्थन पाकर इस अध्यात्मी परम्परा से दिगम्बर तेरापन्थी का जन्म हुआ । तेरापन्थ के