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२२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
णामस्वरूप प्राकृत, संस्कृत, सस्कृत के अतिरिक्त तमिल, आसामी, बिहारी, राजस्थानी आदि भापाओ मे जैन साहित्य उपलब्ध है।
जैनाचार्यो का शास्त्रार्थ-कौशल
भगवान महावीर के निर्वाण की द्वितीय सहस्राब्दि मे भारत भू-मण्डल पर विभिन्न धर्मो व सम्प्रदायो के बाद कुशल आचार्यों द्वारा शास्त्रार्थो का जाल-सा विछ गया था। जैनाचार्यों ने इस समय अपनी चिन्तन शक्ति को उस ओर मोडा। उनकी स्फुरणशील मनीषा ने अनेक सभाओ मे दिग्गज विद्वानो के साथ शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की और जैन धर्म की प्रभावना मे उन्होने चार चाद लगा दिए।
जैनाचार्य और जैन धर्म का विस्तार
जैनाचार्यों ने जैन धर्म को व्यापक विस्तार दिया। उनके द्वारा प्रदत धर्म का सन्देश सामान्य जनो से लेकर राजप्रासाद तक पहुचा। दक्षिणाञ्चल के राजवशचोलवश,होयसलवश, राष्ट्रकूटवश, पाण्ड्यवश, कदम्बवश और गगवश के राजपरिवार जैन थे । दक्षिण नरेश शिवकोटि ने आचार्य समन्तभद्र से, शिलादित्य ने आचार्य मल्लवादी से, दुविनीत कोगुणी ने आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) से, आचार्य अमोघवर्ष ने आचार्य वीरसेन और जिनसेन से अध्यात्म का बोध प्राप्त किया था। युद्ध-विजेता दण्डनायक सेनापति चामुण्डराय, गगधर और हुल्ल ने जैनाचार्यों से प्रभावित होकर जैन शासन की अनुपम प्रभावना की थी।
भारत के उत्तराञ्चल मे भी राजशक्तियो पर जैनाचार्यों का अप्रतिहत प्रभाव था। आचार्य सिद्धसेन ने सात राजाओ को प्रतिबोध दिया था। कूर्मार के राजा देवपाल और अवन्ति के विक्रमादित्य उनके परम भक्त बन गए थे। ग्वालियर के राजा वत्सराज का पुन 'आम आचार्य वप्पभट्रि के साथ गाढ मैत्री सम्बन्ध रखता था। बगाल के अधिपति धर्मराज और राजा 'आम' का परस्पर पुरातन वैर आचार्य वप्पभट्टी की उपदेशधारा से सदा-सदा के लिए उपशान्त हो गया था। ___ आचार्य हेमचन्द्र की प्रतिभा पर मुग्ध होकर जयसिंह और कुमारपाल ने अपना सम्पूर्ण राज्य ही उनके चरणो मे समर्पित कर दिया था। राजा हर्षदेव की सभा में आचार्य मानतुग का, परमार नरेश भोज एव जयसिंह की सभा मे आचार्य माणिक्यनन्दी एव आचार्य प्रभाचन्द्र का, सोलकी नरेश जयसिंह प्रथम की सभा में आचार्य वादिराज का, चालुक्य वशी कृष्णराज तृतीय की सभा मे आचार्य सोमदेव का विशेष स्थान था। ____ मुगल सम्राटो को प्रतिबोध देनेवाले आचार्यों में आचार्य जिनप्रभ सर्वप्रथम थे। उन्होने मुगल नरेश तुगलक को बोध देकर जैन शासन के गौरव को बढ़ाया।