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________________ मंगल प्रभात आचार्य भिक्षु ३६७ किया | उनके सत्यान्वेषी मानस को प्रचलित परम्पराओ से कही सतोप न मिल सका। विचार-भेद के कारण २२८७ ( वि० १८१७ ) चैत्र शुक्ला नवमी के दिन वे चार साथियो सहित स्थानकवामी परम्परा से सम्बन्ध विच्छेद कर पृथक् हो गए। चौंतीस वर्ष की अवस्था मे चिन्तनपूर्वक उठाया हुआ उनका यह कदम पूर्वपरम्पराओ को चुनोती व अध्यात्ममान्ति का सूत्रपात था । आचार्य भिक्षु के सामने अनेक मघयं आए। मकटमयी विकट परिस्थितिया चट्टान को भाति उनके पथ में उपस्थित हुई । पर सयम के पथ पर वटते हुए उनके चरणो को काल व देशजनित कोई बाधा अवरुद्ध न कर सकी । आचार्य भिक्षु के इस क्रान्तिकारी निर्णय का लक्ष्य विशुद्ध आचार परम्परा का वहन था । उन्होने नाम व सम्प्रदाय निर्माण करने को कोई भी योजना पहले नही मोची थी और न अपने दल का कोई नामकरण किया । उनकी सख्या अन्य श्रमणो के साथ ओर मिल जाने से तेरह हो गयी थी । जोधपुर के तत्कालीन दीवान फतेहचन्द जी सिंघवी ने आचाय भिक्षु के विचारो के अनुसार तेरह श्रावको को दुकान मे मामायिक करते देखा। उनसे आचार्य भिकू के सम्वन्ध की जानकारी प्राप्त करते समय पता लगा -: - उनके साथ श्रमणो की सख्या भी तेरह ही है। पार्श्व मे खड़े एक भोजक कवि ने तत्काल एक पद की रचना कर तेरह की संख्या के आधार पर आचार्य भिक्षु के दल को 'तेरापथी' दल सम्बोधित किया। भोजक कवि के मुख से दिया हुआ यह नाम मुख-मुख पर चचत होता हुआ माचार्य भिक्षु के कानो तक पहुचा । उनको अर्थप्रधान मेघा ने तेरापथी शब्दावली के माथ व्यापक अर्थ योजना घटित की। तेरापथ को प्रभु का मार्ग बताकर उम नाम को स्वीकार कर लिया। तात्त्विक भूमिका पर तेरापथ शब्द की व्याख्या मे पाच महाव्रत, पाच समिति, तीन गुप्ति - इन तेरह नियमो की साधना का सम्बन्ध जोडा । आचार्य भिक्षु ने वी० नि० २२८७ ( वि० १८१७) मे आषाढ शुक्ला पूर्णिमा के दिन बारह साथियो सहित नई दीक्षा ग्रहण की। यही तेरापथ स्थापना का प्रथम दिवस था । दीर्घदर्शी, सुविनीत भ्रमण थिरपाल जी व फतेहचन्द जी की युगल सन्तो की विशेष प्रार्थना पर वे तप आराधना के साथ जन-उद्बोधन कार्य मे प्रवृत्त हुए । उनके आगम-आधारित उपदेशो का जनमानस पर अप्रत्याशित प्रभाव वढता गया। लोगो के चरण उनके पीछे डोर से खीचे पतग की भाति बढते चले आए। of व्यक्ति श्रावक भूमिका मे प्रविष्ट हुए। कई श्रमण बने । चार वर्ष तक किसी हिन की श्रमण दीक्षा नही हुई। एक व्यक्ति ने आकर भिक्षु से कहा--" भिक्षु 1 जी' तुम्हारे सघ मे तीन तीर्थ हैं।" आचार्य भिक्षु मुस्कराते हुए बोले - "इस बात की मुझे कोई चिन्ता नही, मोदक खण्डित है पर शुद्ध सामग्री से बना है ।"
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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