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१०. मंगल प्रभात आचार्य भिक्षु
तेरापथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु थे। वे युगप्रवर्तक, कान्तद्रष्टा, आत्मसगीत के उद्गाता एव सत्य के महान् अनुसधाता थे। उनके जीवन का सर्वस्व ही सत्य था। आगम मथन करते समय प्राप्त सत्य की स्वीकृति मे सम्प्रदाय का व्यामोह, सुविधावाद का प्रलोभन एव पद सम्मान का आकर्षण उनके लिए वाधक नहीं बन सका। जहा भी जब भी उन्हे जिस रूप मे सत्य की अनुभूति हुई, दुनिया के सामने उन्होने निर्भीकतापूर्वक उस सत्य की अभिव्यक्ति दी। उनके सार्वभौमिक अहिंसात्मक घोष से धार्मिक जगत् मे एक नई क्रान्ति का जन्म हुआ और मानवता के मगल प्रभात का उदय हुआ।
आचार्य भिक्षु का प्रारम्भिक नाम 'भीखण' था। उनका जन्म वी०नि० २२५३ (वि० १७८३) आपाढ शुक्ला त्रयोदशी के दिन जोधपुर प्रमण्डल मे कटालिया ग्राम मे हुआ। उनके पिता का नाम शाह बल्लू जी व माता का नाम दीपा बाई था। दीपा बाई की कुक्षि से जन्मा मकलेचा परिवार का यह कुलदीप यथार्थ मे ही कुल दीप सिद्ध हुमा। पुत्र की गर्भावस्था में माता ने सिंह का स्वप्न देखा था। यह स्वप्न शिशु के शुभ भविष्य का सकेत था । आचार्य भिक्षु सयमसाधना-पथ पर सिंह की भाति निर्बाध गति से अविरल बढते रहे।
आचार्य भिक्षु का शिशु-जीवन विविध जिज्ञासाओ से भरा हुआ उभरा और वैराग्य रस से परिपूर्ण होकर धार्मिकता की ओर ढलता गया। विविध धर्म-सम्प्रदायो के सम्पर्क ने आचार्य भिक्षु को सत्य का अनुसन्धित्सु बना दिया। स्थानकचासी परम्परा ने जिज्ञासु हृदय को अधिक प्रभावित किया।
एक कुलीन कन्या के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ। गृहस्थ जीवन मे आवद्ध होकर भी वे कमलतुल्य निर्लेप थे। उनके कन्त स्तल मे विरक्ति का निर्झर वह रहा था। पूर्ण सयमी जीवन स्वीकार कर लेने की भावना उनमे लम्बे समय तक परिपाक पाती रही । पत्नी के स्वर्गवास से विरक्ति की धारा और तीन हो गयी। मा के लिए सतोषप्रद व्यवस्था का निर्माण कर वे वी०नि० २२७८ (यि० १८०८) मे स्थानकवासी परम्परा के आचार्य रघुनाथ जी से दीक्षित हुए।
आठ वर्ष तक उनके साथ रहे। आगम ग्रन्थो का उन्होने गम्भीर अध्ययन