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३६८ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
तेरापथ स्थापन-काल मे माधुओ की सख्या तेरह थी । उसी वर्ष मे यह संख्या कम होकर छह के अक पर पहुच गयी । आगम- विशेषज्ञ हेमराज जी स्वामी की दीक्षा वी० नि० २२२३ (वि०१८५३ ) मे हुई । उससे पहले सन्तो मे १३ की संख्या पुन कभी पूर्ण नही हो पायी थी । हेमराज जी स्वामी की दीक्षा के समय तेरह का अक पूर्ण हुआ तथा उसके वाद आगे बढता गया ।
आचार्य भिक्षु के शासनकाल मे १०४ दीक्षाए हुई । उनमे से ३७ व्यक्ति पृथक हो गए पर आचार्य भिक्षु के सामने सख्या का व्यामोह नही, आचार-विशुद्धि का प्रश्न प्रमुख था ।
अनुशासन की भूमिका पर उनकी नीति स्वस्थ व सुदृढ थी । उन्होने पाच साध्वियों को एकसाथ सघमुक्त कर दिया पर अनुशासनहीनता व आचारuttar को प्रश्रय नहीं दिया ।
तेरापथ सघ के द्वितीय आचार्य भारीमलजी स्वामी को उन्होने वी० नि० २३०२ ( वि० १८३२ ) मे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया । उसी समय सर्वप्रथम उन्होने सघीय मर्यादाओ का निर्माण भी किया। एक आचार्य मे सघ की शक्ति को केन्द्रित कर उन्होने सुदृढ सगठन की नीव डाली। इससे अपने-अपने शिष्य बनाने की परम्पराओ का मूलोच्छेद हो गया । भावी आचार्य के चुनाव का दायित्व भी उन्होने वर्तमान आचार्य को सौंपा ।
आज तेरापथ सघ सुगठित और सुव्यवस्थित है, इसका प्रमुख श्रेय आचार्य भिक्षु की उन मर्यादाओ को तथा एक आचार्य, एक समाचारी और एक विचार इस महत्त्वपूर्ण त्रिपदी को है ।
आचाय भिक्षु सहज कवि थे व गम्भीर साहित्यकार थे । उन्होने लगभग अडतीस हजार पद्य की रचना कर जैन साहित्य को समृद्ध किया । उनकी रचना राजस्थानी भाषा मे एव राजस्थान मे प्रचलित राग-रागिनियो मे गेय रूप है । कुछ रचना गद्यमयी है ।
आचार्य भिक्षु का विहरण-क्षेत्र राजस्थानान्तर्गत प्राचीन सज्ञा से अभिहित मारवाड मेवाड ढूंढाड था । अत उनकी रचनाओ मे मारवाडी, मेवाडी भाषा का सम्मिश्रण है | राजस्थान का यह भूभाग गुजरात के नजदीक होने के कारण कहीकही गुजराती शब्दो के प्रयोग भी हैं ।
आचार्य भिक्षु कवि थे, पर उन्होने जीवन मे कवि बनने का प्रयत्न नही किया और न उन्होने कभी भाषाशास्त्र, छन्दशास्त्र, अलकारशास्त्र एव रसशास्त्र का प्रशिक्षण पाया पर उनके द्वारा रचे गए पद्यो मे सानुप्रासिक आलकारिक प्रयोग पाठक को मुग्ध कर देते है । मिश्र धर्म के निरसन मे उनके पद्य है
'साभर केरा सीग मे—सीग सीग मे सोग । ज्यू मिश्र परूपे त्यारी बात मे धोग धीग मे धीग ॥