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५. क्षमा-मदिर आचार्य ऋषिलव
स्थानकवासी परम्परा मे ऋषिलव जी ऋषि-सम्प्रदाय के प्रभावक आचार्य थे । क्रियोद्धारक आचार्यो मे सम्भवत वे प्रथम थे । उनका जन्म सूरत मे हुआ। उनकी माता का नाम फूलाबाई था।
ऋपिलव जी की बाल्यावस्था मे ही उनके पिता का वियोग हो गया था। उनके नाना वीरजी बोरा थे।
वोरा जी सूरत के समृद्ध श्रेष्ठी थे । उनका गोत्र श्रीमाला था। फूलावाई उनकी एक ही पुत्री थी। वे पति-वियोग हो जाने के कारण वह पुत्र के साथ पिता के यहा रहने लगी थी।
ऋपिलव जी रूप से सुन्दर व बुद्धिमान वालक थे। फूलाबाई सायकाल मे सामायिक और प्रतिक्रमण किया करती थी। माता के द्वारा उच्चरित सामायिक पाठ और प्रतिक्रमण के पाठ को सुनते-सुनते ऋपिलव जी को छोटी-सी अवस्था मे भी आवश्यक सूत्र कण्ठस्थ हो गया था।
ऋषि वजरग जी सूरत के प्रसिद्ध यति थे । वोरा जी का परिवार धर्म श्रवणार्थ उनके उपाश्रय मे आया-जाया करता था। फूलाबाई की प्रेरणा से लव जी ने बजरग जी यति के पास से जैनागमो का अभ्यास किया । दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचागग आदि सूत्रो का अध्ययन किया। शास्त्रो के अध्ययन से लव जी को समार से विरक्ति हुई।
बोरा जी के पास अनुमानत छप्पन करोड की सम्पत्ति थी। उस सबके अधिकारी लव जी होते थे। धन की वैभव का व्यामोह उन्हे अपने पथ से विचलित नही कर सका । नाना बोरा जी की आज्ञा प्राप्त कर उनकी प्रेरणा से लव जी ने बजरग जी यति के पास वी० नि० २१६२ (वि० १६६२) मे दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व उन्होने यति जी को वचनवद्ध किया-"आचार-विचार मे भेद न होने तक मैं आपके साथ रहूगा।" यति जी ने इसके लिए पूर्ण स्वीकृति प्रदान कर दी । दीक्षा लेने के बाद दो वर्ष तक उनके साथ रहे। यतिवर्ग मे छाए हुए शिथिलाचार को देखकर उनका मन ग्लानि से भर गया। उन्होने यति जी के साथ कई बार इस सबन्ध की चर्चा की। वजरग जी यति का आखिरी उत्तर