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क्षमा-मुदिर आचार्य पिलव ३५७
था-"मेरी वृद्धावस्था है, मैं कठिन क्रिया का पालन नहीं कर सकता।"
लव जी ने उनसे क्रियोद्धार करने की आज्ञा मागी। बजरग जी यति ने प्रमन्न मन से कहा-"तुम सुखपूर्वक नियोद्धार करो, मेरा आशीप तुम्हारे साथ है।"
बजरग जी का आदेश पाप्न कर लव जी ऋपि ने थोमन जी प्रपि और भानु ऋपि जी के साथ सूरत से उभान की ओर विहार किया। उन्होने ऋपि मम्प्रदाय के अभिमत मे गम्भात मे यी०नि० २१७४ (वि०म० १७०४) मे नवीन दीक्षा ग्रहण की।
नव जी नपि जैनागमों के गम्भीर ज्ञाता थे। माध्याचार का अन्यन्त निर्मल नीति ने पालन करना उनका लक्ष्य था।
लव जी का धर्म-प्रचार कार्य दिन-प्रतिदिन वटता गया। उनके आगर-कोशल की मर्वन चर्चा होने लगी। यतियो के शिधिलाचार का मिहागन डोलने लगा। यति उनके प्रतिद्वन्दी हो गए। लव जी पि के नाना वोग जी ने उन्होने जाकर कहा-'प्टिवर्य लव जी मच्छ में भेद उत्पन्न कर रहे हैं। ये अपनी अप्ठना दिखाने के लिए रमागे निन्दा करते हैं। उनकी गति को न रोका गया तो लोकागच्छ का अस्तित्व ही उगमगा जाएगा।"
पतियों के विचार को सुनकर वोरा जी उनसे महमत हो गए। उन्होंने खभात के नवाब मे निवेदन कर लव जी को कारागह में बन्द करा दिया। लव जी के मुत्र पर बन्दीगृह में भी वही प्रसन्नता थी जो पहले थी। वे वहा पर भी शान्तवृत्ति मे माधना और ध्यान में नगे रहे । उनकी मोम्यवृत्ति या प्रभाव नवाय की पत्नी पर हुआ। उनके कहने से नवाव ने लव जी आदि सती को निर्दोप घोपित फर मुस्त कर दिया, ममे नव जी की प्रशमा नगर-भर में प्रसारित हुई। लव जी को जनता ने पूज्य पर मे मटित किया। __ लव जी ऋपि की गुद्धनीति और विशुद्ध आचार पद्धति का प्रभाव एक दिन चोरा जी पर हुआ और वे भी ऋपिलव जी के परम भक्त बन गए।
गुजगत के खभात, अमदावाद आदि नगर उनके विशेष प्रचार क्षेत्र थे। गुजगत के अतिरिक्त राजस्थान प्रान्त में भी उन्होने विचरण किया था।
ऋपिलव जी ने वी०नि० २८८० (वि० २०१०) मे दो व्यक्तियो को दीक्षा प्रदान की थी। उनमें एक दीक्षा नपि सोम जी की थी। दीक्षा ग्रहण करते समय मोमजी २३ वर्प के नवयुवक थे। उन्हें कुछ शास्त्रीय ज्ञान भी था।
लोकागच्छीय यति शिव जी ऋपि के शिष्य धर्मसिंह जी से भी उनकी कई वार चर्चा-वार्ता हुई । आचार्य धर्मसिंह जी और ऋपिलव जी कई विपयो मे एक मत थे। ऋपिलव जी की प्रेग्णा से धमसिंह जी भी कियोद्वार करने के लिए तत्पर हो गए थे। इसमे यतियो मे विद्रोहाग्नि सुलगने लगी।
एक वार ऋपिलव जी के शिष्य भानुऋपि जी को एकान्त मे पाकर विद्वेप