________________
५३ कुशल शासक आचार्य जिनकुशल
दादा सज्ञा से प्रसिद्धि प्राप्त आचार्यों में आचार्य मणिधारी जिनचन्द्र के वाद आचार्य जिनकुशल सूरि का नाम आता है।
जिनकुशल सूरि राजसम्मान प्राप्त यशस्वी मनी जेसल के पुत्र थे। माता का नाम जयन्तश्री था। पूर्ण वैराग्य के साथ लगभग दम वर्ष की लघुवय मे उन्होने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षानाम कुशलकीति था। शास्त्रो का गम्भीर अध्ययन कर कुशलकीर्ति मुनि ने बहुश्रुतता प्राप्त की तथा शास्त्रेतर साहित्य का अनुशीलन कर वे प्रगल्भ विद्वान् बने।
श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य ने पाटण मे कुशलकीति मुनि को वी० नि० १८४७ (वि० स० १३७७) ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी के दिन 'कलिकाल केवली' विरुद प्राप्त आचार्य जिनचन्द्र सूरि के स्थान पर नियुक्त किया। उनका नाम कुशलकीति से जिनकुशल सूरि हुमा । मिन्ध और राजस्थान (मारवाड) उनके धर्म-प्रचार के प्रमुख क्षेत्र थे। । वे चामत्कारिक आचार्य भी थे एव भक्तो की मनोकामना पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष के समान माने जाते थे। लोग अत्यन्त आदर के साथ उनके वचनो को ग्रहण करते एव उनका आशीर्वाद पाकर पुलक उठते थे। आज भी अनेक स्थानो पर उनकी पादुकाए भक्तिभाव से पूजी जाती हैं । सकट की घडियो मे लोग बडी निष्ठा से उनका स्मरण करते हैं। उनके नाम पर अनेक स्तवन और स्मारक बने हैं। ___ साहित्य-रचना मे आचार्य जिनकुशल सूरि की प्रमुख रचना 'चैत्य वदन कुलक' वृत्ति है । इसकी रचना वी०नि० १८३३ (वि० स० १३६३) मे हुई थी।
आचार्य जिनकुशल सूरि का जैसा नाम था वैसे ही वे थे। उनके शासनकाल मे सघ सव तरह से कुशल बना रहा । जैन धर्म की महती प्रभावना हुई।
जीवन के सन्ध्याकाल मे शारीरिक शक्तियो को क्षीण होते देखकर उन्होने जिनपद्म सूरि को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। देवराजपुर में फाल्गुन कृष्ण पक्ष वी०नि० १८५६ (वि० स० १३८६) मे अनशनपूर्वक पूर्ण समाधि के साथ उनका स्वर्गवास हुआ।