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५२ जन-जन-हितैषी आचार्य जिनप्रभ
बरतरगच्छ के प्रभावक आचार्य जिनप्रभ मरि जिनकुशल सूरि के समकालीन थे। वे स्वच्छ एव निर्मल प्रतिभा के धनी थे। जैन विद्वानो में सर्वाधिक स्तोत्र-माहित्य के निर्माता वै थे। उन्होंने ७०० स्तोत्रो का निर्माण किया। वर्तमान में उनके १०० स्तोत्र उपलब्ध हैं।
विविध तीर्थकल्प, विविध मार्गप्रपा, श्रेणिक चरित्र, द्वयाश्रय काव्य आदि कई रचनाए उनकी है।
विविध तीर्थकल्प एक ऐतिहासिक कृति है। इस कृति के अध्ययन से उनकी प्रलम्बमान यानाओ का परिचय भी मिलता है। उन्होने गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्णाटक,आध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, पजाव आदि विभिन्न क्षेत्रो मे विहरण किया था। इन यात्राओ मे उन्हें विभिन्न देशो, प्रान्ती, क्षेत्रो का जो इतिहास उपलब्ध हुआ और जो विशेपताए उन्होने देखी अथवा जो भी घटनाए जनश्रुति के आधार पर परम्परा में उन्होंने सुनी, उनको मस्कृत-प्राकृत भाषा में निवद्ध कर तीर्थकल्प ग्रन्थ की रचना की है । अत ऐतिहासिक सामयी की दृष्टि से यह ग्रन्थ अतीव महत्त्वपूर्ण है।
प्रस्तुत ग्रन्थ मे ६२ कल्प हैं एव ३८ तीर्थस्थानी का वर्णन है । भगवान् महावीर के अस्थिग्राम, चम्पा, पृष्ठचम्पा, वैशाली आदि ४२ चातुर्मासिक स्थलो का नामपुरस्मर उल्लेख और पालक, नन्द, मौर्यवश, पुष्पमित्र, बलमित्र, भानुमित्र, नरवाहन, गर्दभिल्ल, शक, विक्रमादित्य आदि राजाभी की कालसम्बन्धी जानकारी इस ग्रन्थ से प्राप्त की जा सकती है। ___ इस ग्रन्थ के महावीर कल्प मै पादलिप्त, मल्लवादी, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र, हेमचन्द्र आदि के उल्लेख भी हुए है।
आचार्य जिनप्रभ सूरि ने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना वी०नि० १५५६ (वि. १३८६) में की थी।
विधि मार्गप्रपा की रचना आचार्य जिनप्रभ ने अयोध्या मे वी० नि० १८३३ (वि० १३६३) मे की थी। यह ग्रन्थ क्रियाकाण्ड प्रधान है। इसके ४१ द्वार है। 'पौषध विधि, प्रतिक्रमण विधि आदि अनेक धार्मिक क्रियाओ की विधि को इसमें