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४६ तत्त्व-निष्णात आचार्य देवेन्द्र
आचार्य देवेन्द्र सूरि जगच्चन्द्र सूरि के शिष्य थे। उन्होंने शैशवावस्था मे दीक्षा ग्रहण की और एकनिष्ठा ने विद्या की आराधना कर अपने में विशिष्ट शक्तियो को सजोया। तत्त्व-निष्णात आचार्यों मे उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी व्याख्यान शैली रोचक और प्रभावक थी। श्रोता उनकी वाणी को सुनकर मुग्ध हो जाते थे। उनके उपदेश से बोध प्राप्त कर कई व्यक्ति सयम-पथ के पथिक भी बने थे।
वे माहित्यकार भी थे। उन्होने अधिकाशत सिद्धान्तपरक माहित्य की रचना की। कर्मग्रन्थो जैमी अत्यन्त उपयोगी कृतिया उनके गभीर आगमिक अध्ययन का निष्कर्ष हैं। उनके कर्मग्रन्थो की संख्या पाच हैं। प्रथम कर्मग्रन्थ की ६० गाथाए, द्वितीय कर्मग्रन्थ की ३४ गाथाए, तृतीय कर्मग्रन्थ की २४ गाथाए, चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ८६ गाथाए एव पाचवे कर्मग्रन्थ की १०० गाथाए हैं । प्राचीन ग्रन्थो के आधार पर इन कर्मग्रन्थो मे कर्मों का स्वरूप और उनके परिणाम को अच्छी तरह से समझाया गया है । इनमे गुणस्थानो का भी विवेचन है । कर्मग्रन्थो पर देवेन्द्र सूरि का स्वोपज्ञ-विवरण है।
सिद्ध पचाशिका सूत्रवृत्ति, धर्म रत्न वृत्ति, श्रावक दिनकृत्य सूत्र, सुदर्शन चरित्र आदि उनकी कई सरस रचनाए हैं । इनमे विविध सामग्री प्रस्तुत है। _वे कवि भी थे। उन्होने दार्शनिक ग्रन्थो के अतिरिक्त दानादि कुलक आदि 'विविध मधुर स्तवनो की रचना की। उनकी 'वन्दारु वृत्ति ग्रन्थ' श्रावकानुविधि के नाम से प्रसिद्ध है।
विद्यानन्द सूरि और धर्म घोप सूरि उनके विद्वान् शिष्य थे । लघु पोपधशाला का निर्माण इन्ही से हुआ। वडी पोपधशाला के प्रारम्भ का श्रेय विजयचद्र सूरि के शिष्यो को है। - देवेन्द्र सूरि ने मालव की धरा पर जैन सस्कारो का प्रभूत प्रचार-प्रसार किया और वही पर उनका वी० नि० १७९७ (वि० स० १३२७) मे स्वर्गवास हो गया।