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जग वत्मल आचार्य जिनेश्वर २६७
वर चैत्यवासियो को नान्त्रार्थ में पराजित कर देना जिनेश्वर सूरि की प्रबल क्षमता का सूचक था। दशवेकालिक सूत्र के जाधार पर उनमे साध्वाचार सहिता का विवेजन सुनकर दुर्लभराज प्रभावित हुए। उन्होंने परतर की उपाधि से उनको उपमित किया । तभी ने इनका सम्प्रदाय 'खरतरगच्छ से सम्बोधित होने लगा । खरतर शब्द उनकी कठोर आचार पद्धति का सूचक है। यह घटना जिनेश्वर सूरि के जाचार्य पद प्राप्ति ने पूर्व पो०नि० १५८० (वि०स० १०७०) के आसपास की है। खरतरगच्छ गुर्वावनि के अनुसार यह समय वी० नि० १४६४ (वि० स० १०२४) है ।'
महापराक्रमी राजा वनराज के समय से ही पाटण में चैत्यवासियो का दवदवा होने के कारण सुविहितमागों मुनियों के लिए वहा प्रवेश पाना कठिन या । जिनेश्वर सूरि को इस शास्त्रार्थ - विजय के बाद यह समस्या मिट गयी । सबके लिए वहा आना-जाना सुगम हो गया ।
जाचार्य जिनेश्वर सूरि जी के शासनकाल में अभयदेव, धनेश्वर, प्रसन्नचन्द्र, धमदेव, सहदेव नादि अनेक व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण की।
एक बार जिनेश्वर सूरि जी का पदार्पण 'जाशापली' मे हुआ। वहा वी० नि० १५५२ से १५५५ ( वि० १००२ मे २००५) तक के समय मे लीलावती, कथाकोप, वीरचरित्र, पञ्चनिगी प्रकरण नादि कई ग्रन्थों की रचना कर उन्होने महान् साहित्यिक सेवा की।
उनकी वी० नि० १५५० (वि० १०८०) की हरिभद्र के अप्टको पर निर्मित टीका साहित्य जगत् की अमूल्य कृति बनी। उन्होने यह रचना जालौर मे की थी।
इन कृतियो के समय के आधार पर आचार्य जिनेश्वर सूरि वीर निर्वाण की १६ वी शताब्दी (वि० ११ ) के आचार्य सिद्ध होते हैं ।
आधार-स्थल
समय चवीसे (2) वच्छरे ते आयरिया मच्छारिणो हारिया । जिणेसरसूरिणा जिय । रन्ना तुट्टेण परतर विरुद दिन्न । तओ पर परतरगच्छो जानो ।
(परतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि, पताक ६० )