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________________ ३१. जग-वत्सल आचार्य जिनेश्वर खरतरगच्छ के प्रणेता आचार्य जिनेश्वर सूरि नवागी टीकाकार अभयदेवसूरि के गुरु थे। वर्धमान सूरि व जिनेश्वर सूरि दोनो भाई थे। ब्राह्मण परिवार मे उन्होने जन्म लिया। उनका नाम श्रीधरव श्रीपति था। एक बार वे मालव प्रदेश की धारा नगरी मे पहुचे । राजा भोज की धारा नगरी अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय थी। उसका अपार वैभव शैल-शिखरो को छू रहा था। श्रीसम्पन्न श्रेष्ठी लक्ष्मीधर उसी नगरी का ख्याति प्राप्त श्रेष्ठी था। ___ एक दिन उसके घर आग लग गयी। दीवारो पर लिखे हुए सुन्दर शिक्षात्मक श्लोक मिट गए। लक्ष्मीधर इस घटना से चिन्तित हुआ। श्रीधर, श्रीपति उनके घर पर पहुचे। श्रेष्ठी ने घटना-प्रसग पर चर्चा करते हुए कहा-"गृह-विनाश से भी अधिक चिन्ता दीवारो पर उल्लिखित साहित्य-सम्पत्ति के खो जाने की है।" दोनो विद्वानो ने कहा- "हम कल भिक्षार्थ आपके घर पर आए तव इन श्लोको को पढा था । हमे वे पूर्णत याद है।" उन्होने तत्काल सारे श्लोक सुना दिए । लक्ष्मीधर उनकी प्रतिभा पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और सोचा-'इन दोनो से जैन दर्शन की महान् प्रभावना हो सकती है। पर्याप्त सम्मान देकर श्रेष्ठी ने उनको अपने घर पर रख लिया। ___ लक्ष्मीधर प्रद्योतन सूरि के शिष्य वर्धमान सूरि का परम भक्त था। एक दिन वर्धमान सूरि धारा नगरी में आए । लक्ष्मीधर के साथ दोनो विद्वान् भी वन्दनार्थ वर्धमान सूरि के पास आए और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर दीक्षित हो गए। उनकी दीक्षा मे लक्ष्मीधर श्रेष्ठी की प्रबल प्रेरणा थी। युगल भ्राता दीक्षा लेने के वाद जिनेश्वर व बुद्धिसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए। चरित्र-धर्म की आराधना के साथ ज्ञानाराधना में भी उन्होने अपने को विशेष रूप से नियुक्त किया । युग्म बन्धुओ के भौतिक सामर्थ्य एव गण-सचालन की योग्यता पर प्रसन्न होकर आचार्य वर्धमान सूरि ने उन्हें आचार्य पद पर मडित किया एव जिनेश्वर सूरि को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वर्धमान सूरि के आदेश से गुजरात के महाराज दुर्लभराज की सभा में पहुच
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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