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२७. शारदा-सूनु आचार्य वादिराज
दिगम्बर परम्परा मे आचार्य वादिराज प्रभावक आचार्य हुए थे । वे तर्कशास्त्र के निष्णात विद्वान् थे । उनका सम्बन्ध द्रविण या द्रमिल मघ की अरुगल शाखा से था ।
वादिराज सूरि का मूल नाम अभी भी अज्ञात है । इतिहास के पृष्ठो पर उनकी प्रसिद्धि वादिराज के नाम से है । सम्भवत वादिराज की सज्ञा उन्हे वादकुशलता के कारण प्राप्त हुई है ।
पट्तकं सन्मुख, स्याद्वाद- विद्यापति, जगदेक मल्लवादी जैसी महान् उपाधिया उनके वैदुष्य को प्रकट करती हैं ।
आचार्य वादिराज उच्च कोटि के कवि भी थे। उनकी गणना आचार्य सोमदेव के साथ की गई है। उनकी योग्यता का पूरा परिचय नगर तालुका के शिलालेख न० ३९ मे प्राप्त होता है ।
मदसि यदकलक कीर्तने धर्मकीतिर्वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपाक ।
प्रस्तुत शिलालेख के आधार पर वे सभा मे अकलक विषय विवेचन मे धर्मकीर्ति, प्रवचन मे वृहस्पति और न्याय में नैयायिक गौतम के समकक्ष थे । वादिराजमनुशाब्दिक लोको वादिराजमनुतार्किक सिद्ध ।
उस युग के वैयाकरण और तार्किक जन वादिराज के अनुग थे ।
वे चामत्कारिक प्रयोग भी जानते थे । जनश्रुति के अनुसार एक बार अपने भक्त का वचन रखने के लिए उन्होंने मन्त्रबल से अपने कुष्ट रोग को छिपाकर देह को स्वस्थ कञ्चन वर्ण वना लिया था ।
दक्षिण के सोलकी वश के विख्यात नरेश जयसिंह (प्रथम) की सभा मे उनका पर्याप्त सम्मान था ।
आचार्य वादिराज ने विविध सामग्री से परिपूर्ण कई ग्रन्थों की रचना की ॥ वर्तमान मे उनके ५ ग्रन्थ उपलब्ध है ।