________________
२६. न्याय-निकेतन आचार्य अभयदेव
आचार्य कालक की भाति कई आचार्य अभयदेव नाम से प्रसिद्ध है । उनमे वादमहार्णव के टीकाकर आचार्य अभयदेव राजगच्छ के थे। वैदिक दर्शन के विद्वान् राजा अल्ल को प्रतिवोध देने वाले आचार्य प्रद्युम्न उनके गुरु थे। आचार्य प्रद्युम्न 'चन्द्र गच्छ' के थे।
राजा मुज के उद्बोधक धनेश्वर सूरि आचार्य अभयदेव के शिष्य थे। मुज राजा के कारण ही चन्द्र गच्छ 'राजगच्छ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था।
न्याय के क्षेत्र में विशेषज्ञताप्राप्त होने के कारण आचार्य अभयदेव को 'न्यायवनसिंह' और 'तर्क पञ्चानन' की उपाधिया प्राप्त हुई।
वे गम्भीर साहित्यकार भी थे । उन्होने महाप्राज्ञ आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के 'सम्मति तर्क' ग्रन्थ पर २५००० श्लोक परिमाण 'तत्त्ववोधिनी' नामक सुविशाल टीका लिखी। यह टीका जैन न्याय और दर्शन का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इस ग्रथ मे आत्मा-परमात्मा, मोक्ष आदि विविध विपयो को युक्तियुक्त प्रस्तुत किया गया है। अपने से पूर्ववर्ती अनेक दार्शनिक ग्रन्थो का सदोहन कर आचार्य अभयदेव ने इस ग्रन्थ का निर्माण किया था। इसे पढने से दर्शनान्तरीय विविध ज्ञान-बिन्दुओ का भी सहज पठन हो जाता है। इस टीका का दूसरा नाम 'वाद महार्णव भी है । इस पर आचार्य विद्यानन्द के ग्रन्थो का विशेष प्रभाव है।
अनेकान्त दर्शन की प्रस्थापना मे विभिन्न पक्षो का स्पर्श करती हुई 'तत्त्व बोधिनी' टीका परवर्ती टीकाकारो के लिए भी सबल आधार बनी है।
अचार्य प्रभाचन्द्र कृत 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' और अभयदेव कृत 'सन्मति सूत्र टीका'मे केवली भुक्ति, स्त्री-मुक्ति आदि विपयो पर स्वसम्प्रदायगत मान्यता का समर्थन और परमत का निरसन होते हुए भी एक-दूसरे द्वारा प्रदत्त युक्तियो का परस्पर कोई प्रभाव परिलक्षत नहीं होता। अत हो सकता है ये दोनो आचार्य समकालीन थे। इनको रचना करते समय एक-दूसरे का ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था। न्यायनिकेतन, कुशल टीकाकार, निष्णात दार्शनिक आचार्य अभयदेव का समय वी०नि० १५४५ से १६२० विक्रम की ११वी० शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १२वी शताब्दी का पूर्वाद्ध (वि० १०७५ से ११५०) अनुमानित किया गया है ।