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सिद्धि-सोपान आचार्य सिद्धर्षि २६९
अनावृत द्वार मिले वही चले जाओ।" सिद्धपि तत्काल उल्टे पाव लौटे । धर्म स्थान के द्वार खुले थे । वे वही पहुच गए। वहा गोदोहिकासन, उत्कटिकासन, वीरासन, पद्मासन आदि मुद्रा मे स्थित स्वाध्याय-ध्यानरत मुनि जनो को देखा । उनकी सौम्य मुद्रा के दर्शनमात्र से व्यसनासक्त सिद्धर्षि का मन परिवर्तित हो गया। सोचा-'मेरे जन्म को धिक्कार है। मैं दुर्गतिदायक जीवन जी रहा है। आज सौभाग्य से सुकृत वेला आई, उत्तम श्रमणो के दर्शन हुए। मेरी मा प्रकुपित होकर भी परम उपकारिणी बनी है। उनके योग से मुझे यह महान् लाभ मिला। उष्ण क्षीर का पान पित्तप्रणाशक होता है। शुभ्र अध्यवसायो मे लीन सिद्धर्षि ने उच्च स्वरो से मुनिजनो को नमस्कार किया। गुरुजनो के द्वारा परिचय पूछे जाने पर उन्होने द्यूत व्यसन से लेकर जीवन का समग्न वृत्तात सुनाया और निवेदन किया-"जो कुछ मेरे जीवन में घटित होना था, हो गया। अब मैं धर्म की शरण ग्रहण कर आपके परिपार्श्व मे रहना चाहता है। नौका के प्राप्त हो जाने पर कौन व्यक्ति समुद्र को पार करने की कामना नहीं करेगा।" गुरु ने सिद्धर्षि को ध्यान से देखा । ज्ञानोपयोग से जाना—यह जैनशासन का प्रभावक होगा। उन्होने मुनिचर्या का बोध देते हुए कहा-"सिद्ध । सयम स्वीकृत किए बिना हमारे साथ कैसे रहा जा सकता है? तुम्हारे जैसे स्वेच्छाविहारी व्यक्ति के लिए यह जीवन कठिन है । मुनिव्रत असिधारा है। घोर ब्रह्मव्रत का पालन, सामुदानिकी माधुकरी वृत्ति से आहार ग्रहण, षट् भक्त, अष्ट भक्त तप की आराधना रूप मे कठोर मुनिवृत्ति का पालन लोहमय चनो का मोम के दातो से चर्वण करना है।"
सिद्ध ने कहा-"मेरे इस व्यसनपूर्ण जीवन से साधु जीवन सुखकर है।" दीक्षा जीवन की स्वीकृति मे पिता की आज्ञा आवश्यक थी। सयोगवश सिद्ध के पिता शुभकर पुत्र को ढूढते इतस्तत घूमते वहा पहुच गए । पुत्र को देखकर प्रसन्न हुए। पुन सिद्ध को घर चलने के लिए कहा। पिता के द्वारा बहुत समझाये जाने पर भी सिद्ध ने दीक्षा लेने का निर्णय नही बदला। पुत्र के दृढ सकल्प के सामने पिता को झुकना पडा। सिद्ध पिता से आज्ञा पाकर गपि के पास मुनि-जीवन मे प्रविष्ट
पुरातन प्रबध सग्रह के अनुसार श्री मालपुर के दत्त एव शुभकर दो भाई थे। उनका गोन भी श्रीमाल था। उनके बडे भाई दत्त का नाम माघ एव शुभकर के पुत्र का नाम सीधाक था। सीधाक वाल्यकाल से द्यूत-व्यसनी हो गया। कभी-कभी वह द्यूत मे हार जाने पर अपने ही घर में चोरी कर लिया करता था। पिता की सपत्ति से वह प्रच्छन्न द्रव्य खीचने लगा था। इससे पारिवारिक सदस्य सीधाक से अप्रसन्न रहने लगे थे। जुए मे हार जाने पर पाच सौ द्रमक अथवा उनके बदले अपना मस्तक दे देने के लिए वचनबद्ध होकर एक दिन सीधाक ने जुआ खेला था। सयोग की बात थी उस दिन भाग्य ने सीधाक का साथ नही दिया वह द्यूत मे हार गया।