SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६. सिद्धि-सोपान आचार्य सिद्धप गुप्रfra जैनाचागं सिद्धपि वच्य स्वामी को परपरा के थे । वज्र स्वामी के शिप्य वयमेन थे। वामेन के चार शिष्य थे । उनमें द्वितीय शिष्य निर्वृत्ति से 'नितिगच्छ' को स्थापना हुई। इसी निरतिगच्छ मे नराचार्य हुए हैं। आचार्य aft मुगनार्य के शिय थे और निर्माण के दीक्षागुरु थे । मि गुजरात के श्रीमानपुर में थे। उनके पिता का नाम शुभकर और माता का नाम लक्ष्मी था। उनके दादा का नाम सुप्रभ देव था। सुप्रभ देव गुजरात के श्री वलात नामक राजा के मत्री थे । मत्री गुप्रभ देव के दो पुत्र थे- दन्न और शुभकर । दन्त के पुत्र का नाम माघ था। शिशुपान आदि उत्कृष्ट काव्यों की रचनाओ से माघ की प्रसिद्धि रवि के रूप मे हुई।' शुभकर के पुत्र मिद्धपि श्रमण भूमिका में प्रविष्ट हुए और जैन तथा बौद्ध दर्शन का गंभीर अध्ययन कर वे प्रकाड विद्वान् वने । श्रमण- भूमिका में प्रवेश पाने मे प्रमुख निमित्त उनकी सुदृढ अनु शामिका माता थी । सिद्धपि के जीवन मे ओदायं आदि अनेक गुण विकासमान थे पर उन्हे द्यूत खेलने का नशा था । माता-पिता, बघु एव मित्रो द्वारा मार्ग-दर्शन देने पर भी उनसे द्यूत का परित्याग न हो सका। दिन-प्रतिदिन उनके जीवन मे द्यूत का नशा गहरा होता गया । हर क्षण उन्हे यही चितन रहता । वे प्राय अर्ध-रात्रि का अतिक्रमण कर लौटते । उनकी पत्नी को प्रतीक्षा में रात्रि जागरण करना पडता । पति की इस भादत से पत्नी खिन्न रहती थी। एक दिन सास ने वधू को उदासी का कारण पूछा। लज्जावनत वधू ने पति के द्यूत व्यसन की तथा निशा मे विलव से आगमन की बात स्पष्ट बता दी । सास बोली - "विनयिनी । तुमने मुझे इतने दिन तक क्यो नही बताया ? मैं पुन को मीठे-कड ए वचनो से प्रशिक्षण देकर सही मार्ग पर ले आती । तुम निशा मे निश्चित होकर नीद लेना, रात्रि का जागरण में करूगी।" सास के कथन से वधू सो गयी और पुत्रागमन की प्रतीक्षा में लक्ष्मी बैठी थी । यामिनी के पश्चिम याम मे पुत्र ने द्वार खटखटाया। माता लक्ष्मी क्रुद्ध होकर वोली"काल-विकाल मे भटकने वाले पुत्र सिद्ध को मै कुछ भी नही समझती । अनुचित विहारी एव मर्यादातिक्रात के लिए मेरे घर मे कोई स्थान नही है । तुम्हे जहा 1
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy