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२७० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
उसके लिए पाच सौ द्रमक देने की वात कठिन हो गयी। निशा में वह जुआरियो के मध्य सोया था । कपाट वन्द थे। द्वार से निकल भागने का कोई रास्ता नहीं था। सीधाक अर्ध-रात्रि के आसपास उठा एव प्रासाद-भित्ति से छलाग लगाकर कूद गया। गहन अधकार के बाद उषा का उदय होता है। द्यूत मे हार जाने के कारण सीधाक गहरे दुख मे था। मौत सर पर नाच रही थी। भाग्य मे सीधाक के भित्ति से कूदते हुए ही भाग्य पलट गया, भवन के पाववर्ती उपाश्रय मे वह पहुच गया। तीव्र धमाके से श्रमणो की नीद टूटी। उन्होने सामने खडे व्यक्ति को देखकर पूछा, "तुम कौन हो?"
सीधाक ने अपना नाम बताया और वह वोला, "आपके पास कुछ दातव्य है।" गुरु ने 'तथ्यम्' कहकर सीधाक को स्वीकृति प्रदान की। सीधाक भय की मुद्रा मे बोला, "मुझे अल्प समय के लिए भी दीक्षा प्रदान करें।"
गुरु नक्षत्र एव निमित्त ज्ञान के विशेष ज्ञाता थे। उस समय शुभ नक्षत्र का योग था। इस वेला मे दीक्षित होने वाला व्यक्ति अत्यन्त प्रभावक होगा, यह सोच श्रमणो ने 'सीधाक' को दीक्षित कर लिया। प्रात काल होते ही उपासक 'सीधाक' को मुनि रूप में देखकर बोले-"आर्य | विना योग्यता के भी जैसे-तैसे व्यक्ति को दीक्षित कर लेते हैं। आपके शासन परिवार मे योग्य व्यक्तियो की कमी हो गयी है ? मुनि परिवार छोटा हो गया है ?" 'सीधाक' के दीक्षागुरु गभीर आचार्य थे। उन्होने कोई उत्तर नही दिया। मुनि 'सीधाक' के पास मे ही उपदेशमाला प्रथ रखा हुआ था। मुनि सीधाक ने उसे पढना प्रारम्भ कर दिया। शीघ्रग्राही प्रतिभा के कारण ग्रथ के मुख्य स्थल उसे ज्ञात हो गए। उसकी शीघ्रग्राही प्रतिभा को देखकर गुरु प्रसन्न थे।
सीधाक की खोज करते करते द्यूतकार धर्मस्थान पर पहुचे। वे उससे ५०० द्रमक लेने की कामना से आए थे। उन्होने श्रमणो से कहा--"वे 'सीधाक' को छोड दे।" श्रावक वर्ग 'सीधाक' के बदले ५०० द्रमक देने को प्रस्तुत हुआ।
द्यूतकार बोले-"आप लोगो ने इस पर विश्वास कैसे कर लिया है ? इसने हमे धोखा दिया है, इसी प्रकार आपको भी दे सकता है।" श्रावक वर्ग ने धैर्य से उत्तर दिया, "यह ५०० द्रमक के बदले व्यसनमुक्त वनता है, यह अच्छा कार्य है।" द्यूतकारो के भी श्रावको की बात समझ मे आ गयी। सीधाक को श्रमण-धर्म मे प्रविष्ट जान ५०० द्रमक लिए बिना ही उसे छोड वहा से चले गए।
प्रबधकोश के अनुसार श्री मालपुर के धनी श्रेष्ठी जैन उपासक ने द्यूत-व्यसनी युवा सिद्धार्थ के ऋण को चुकाकर उसे द्यूतकारो की मडली से मुक्त किया। घर ले जाकर भोजन करवाया, पढा-लिखाकर उसे सव तरह से योग्य बनाया और उसका विवाह भी किया।
बालक सिद्ध के पिता नही थे । माता के सरक्षण का दायित्व उस पर ही था।