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१७. वाङ्मय-वारिधि आचार्य विद्यानन्द
दिगम्बर परम्परा के प्रभावी आचार्य विद्यानन्द विद्या के समुद्र थे। विविध विषयो मे उनका ज्ञान अगाध था। वे उच्चकोटि के साहित्यकार, प्रामाणिक व्याख्याता, अप्रतिहतवादी, गम्भीर दार्शनिक, प्रकृष्ट सैद्धान्तिक, उत्कृष्ट वैयाकरण, श्रेष्ठ कवि, जिनशासन के अनन्य भक्त थे। अधिक क्या? अपने युग के वे अद्वितीय विद्वान् थे।
विद्यानन्द नाम के कई आचार्य हुए हैं। प्रस्तुत सदर्भ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक एव आत्मपरीक्षा आदि परिक्षान्त ग्रन्थो के निर्माता आचार्य विद्यानन्द से सम्बन्धित
वाड्मय-वारिधि आचार्य विद्यानन्द की जीवन-परिचायिका सामग्री नही के बरावर उपलब्ध है। उनके माता-पिता, परिवार, कुल, जन्मभूमि आदि का कोई उल्लेख साहित्यधारा मे आज प्राप्त नहीं है और न दीक्षा-गुरु, दीक्षा-स्थान और दीक्षाकाल के सकेत ही मिलते है।। __जैन दर्शन की भाति वैदिक दर्शन पर अगाध पाडित्य के आधार पर उनके ब्राह्मण कुल मे उत्पन्न होने की सभावना शोधविद्वानो ने की है। उभय दर्शनो की पारगामिता मैसूर प्रान्त मे उनके उत्पन्न होने की प्रतीति कराता है, जो जैन और ब्राह्मण दोनो सस्कृतियो का केन्द्र रहा है । आचार्य विद्यानद की विशाल साहित्यनिधि को देखकर विद्वानो ने उनके अविवाहित रहने का अनुमान किया है। उनके अभिमत से अखड ब्रह्मतेज के बिना इस प्रकार का साहित्य रचना सभव नहीं लगता। धवला, जयधवला टीका के निर्माता वीरसेन एव जिनसेन आचार्य भी अखड ब्रह्मचारी थे।
आचार्य विद्यानन्द की साहित्य-साधना अनुपम है। उन्होने नौ अथ लिखे। उनमें छह स्वतन्त्र रचनाए और तीन टीका ग्रथ है। उनकी कृतियो के नाम इस प्रकार है-तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, अष्ट सहस्री, देवागमालकार, युक्त्यनुशासनालकार, विद्यानन्द महोदय, आप्त परीक्षा, प्रमाण परीक्षा, पन परीक्षा, सत्य शासन परीक्षा, श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र ।
इन ६ ग्रथो मे प्रथम ३ टीका ग्रथ है।