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वरिष्ठ विद्वान् आचार्य वणभट्टि १५३
सुनियो ये नाथ वे यहा ने प्रति हुए और शीघ्र गति से चनने हुए गोपालगिरि पहुचे | बप्पभट्टि के लागताएं मेना' गहित राजा नाम सामने आए। राजवीय सम्मान के साथ पट्टि का नगर मे प्रवेश कृषा । बप्पभट्टि के आगमन से आम को धन्दाको अनुभुति हो रही थी। गुरु के चरणो में नन होकर आग ने निवेदन किया । मेगनाया राज्य ग्रहण करे।"
पट्टि बोले "राग्रन्थीको पाप
"
पौनिभावाताधारिधाविनी । गन्यमाने ॥
अभिमान
नेमे ने नारेबावीत बाधा विद्याविरा अभिमान फल
afrat गयी नी मानी ।
श्रम भट्ट प्रभावित हु राजमा
उनपर बैठने के लिए
श्रमण
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पनि जान भावना को देर राजा बहुत
लिए निशान की व्यवस्था की गयी ओर राजा ने पट्टिने जाग्रह-भग निवेदन दिया । "राजा
ने
के बिना सिहासन पर बैठना उनिन
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होती है।"
नही है।गुजरी आम राजा पट्टि के इस
के नाम निम्तन हो गया था। गिरानन
पर पट्टि न बैठने में उन्हें भारी अन्न या । गुरु ने सामने प्रार्थना रखने के को नहीं था। राजा ने सोच-समझकर कम्पभट्टि गो और उनसे नाम प्रधान सचिव से आचार्य सिद्धन-पान प्रेषित किया एवं उनके साथ विज्ञप्नि-पत्र दिया। रिशनिसव में लिया था
श्री गुन शिष्य व नयन्ति गृदव श्रियम् ॥
-योग्य पुत्र, जीर शिन्य गुरुजनों की श्री को प्राप्त करते है । अत आप पट्टि ति पद पर गोनित करें ।
राजपुरुषी द्वारा प्राप्त विज्ञप्तिया जाचार्य निळगेन न पढा । राजा की प्रार्थना पर गम्भीरता से निन्नन पर शिष्य वप्पट्टि को उन्होंने जाचार्य पद पर स्थापित किया । यह वी० नि० १२५१ (वि० =११) चैत्र कृष्णा अष्टमी का दिन था ।' एकान्त स्थान में उन्हें प्रशिक्षण देने हुए आचार्य सिद्धगेन ने कहा--" -"मुने । मेरा अनुमान है—तुम्हार विशेष राजमत्कार होगा। अनेक प्रकार की सुविधा भी तुम्हे प्राप्त होगी। उनमे मुग्ध होकर लक्ष्य को मत भूल जाना । 'इन्द्रियजयो दुष्कर' इन्द्रिय जय की माधना दुष्कर है ।
विकार तो सति विक्रियन्ते
येपा न चेतागि त एव धीरा ।