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________________ वरिष्ठ विद्वान् आचार्य वप्पभट्टि २५१ अध्यात्म-प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया। बालक तीव्र प्रज्ञा का धनी था । श्रवणमान से उन्हे पाठ ग्रहण हो जाता था। एक दिन मे सूरपाल ने सहस्र ग्लोक कठस्थ कर सवको विस्मयाभिभूत कर दिया। वालक ही शीघ्रग्राही मेधा से गुरु को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उन्हे लगा-जैसे योग्य पुन को उपलब्ध कर पिता धन्य हो जाता है, उमी प्रकार हम योग्य शिप्य को पाकर धन्य हो गए है। पूर्ण पुण्य-सचय से ही ऐसे शिष्यरत्नो की प्राप्ति होती है। शिष्य परिवार से परिवृत सिद्धसेन डुवाउधी ग्राम मे गए। बालक सूरपाल भी उनके साथ था। डुवाउधी सूरपाल की जन्मभूमि थी। राजा वप्प और भट्टि दोनो मुनिजनो को वदन करने आए। आचार्य सिद्धसेन ने उनको उद्बोधन देते हुए कहा"ससार अवकर मे अनेक पुत्र कृमि की भाति उत्पन्न होते है, उनसे क्या? तुम्हारा पुत्र धन्य है, वह व्रत धर्म को स्वीकार करना चाहता है। तुम इस पुत्र का धर्मसघ के लिए दान कर महान धर्म की आराधना करो। भवार्णव से तैरने की भावना रखता हुआ तुम्हारा पुत्र श्लाघनीय है।" पुत्र के दीक्षा गहण की वात मुनकर माता-पिता का मन उदास हो गया। वे वोले, "हमारे घर मे यह एक ही कुलदीप है। उसे हम आपको कैसे प्रदान कर सकते हैं?" __ मोह का बन्ध माता-पिता मे जितना सघन था उतना सूरपाल मे नही था। धर्मगुरुओ के पास रहने के कारण उसका मोह और भी तरल हो गया था। उसने सबके सामने अपने विचार स्पष्ट किए-"मैं चारित्र पर्याय को अवश्य स्वीकार करगा।"पुन की निश्चयकारी भापा से माता-पिता को अपने विचारवदलने पडे । सुत को गुरुचरणो मे समर्पित करते हुए उन्होने निवेदन किया, "आर्य | आप इसे ग्रहण करे और इसका नाम वप्पभट्टि रखे, इससे हमारा नाम भी विश्रुत होगा।" __ आचार्य सिद्वसेन को वप्पभट्टि नाम रखने में कोई वाधा नही थी। उन्होने अभिभावको की आज्ञापूर्वक वी० नि० १२७७ (वि० स० ८०७) वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन गुरुवार को मोढेरक नगर मे उसे दीक्षा प्रदान की। मुनि-जीवन मे सूरपाल का नाम वप्पभट्टि रखा गया। मघ की प्रार्थना से आचार्य सिद्धसेन ने वह चातुर्मास वही किया। एक वार की घटना है, वप्पभट्टि वहिर्भूमि गए थे । अति वृष्टि के कारण उन्हें देव-मदिर मे रुकना पडा। वहा इतर नगर से समागत एक प्रवुद्ध व्यक्ति से उनका मिलन हुआ। वह व्यक्ति विशेष प्रभावी परिलक्षित हो रहा था। उसे मुनि वप्पभट्टि से प्रसाद गुणसम्पन्न गम्भीर काव्य के श्रवण का आस्वाद प्राप्त हुआ। वह वप्पभट्टि की व्याय्या-शक्ति से प्रसन्न हुआ और वर्पा रुकने पर उन्हीके साथ धर्म-स्थान परआ गया। आचार्य सिद्धसेन ने उनसे पूछा-"तुम कौन हो?" उसने कहा"कान्यकुब्ज देश के अन्तर्गत गोपाल गिरि नगर के राजा यशोवर्मा का मै पुत्र है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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