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________________ १३ वरिष्ठ विद्वान् आचार्य बप्पभट्टि आचार्य बप्पभट्टि क्षत्रिय थे। बौद्धिक वल से आम राजा को प्रभावित कर उन्होने जैन दर्शन की महती प्रभावना की थी। वे छह वर्ष की अवस्था मे दीक्षित होकर ग्यारह वर्ष की अवस्था मे आचार्य पद पर आरुढ हुए, इतिहास की यह विरल घटना है। आचार्य वप्पभट्टि का जन्म वी० नि० १२७० (वि० ८००) मे भाद्रपद तृतीया रविवार को हुआ। उनके बचपन का नाम सूरपाल था । आचार्य सिद्धसेन से उन्हे जैन सस्कार मिले थे। ये सिद्धसेन मोढगच्छ के थे और दिवाकर सिद्धसेन से भिन्न ये। आचार्य सिद्धसेन एक वार मोढेर नगर में विराजमान थे। उन्होने स्वप्न मे चैत्य पर छलाग भरते केशरी-शावक को देखा। वे प्रात मदिर मे गए। उनकी दृष्टि एक षट्वापिक वालक पर केन्द्रित हो गयी । वह आकृति से प्रभावक प्रतीत हो रहा था। आचार्य सिद्धसेन ने बालक से पूछा- "तुम कौन हो? कहा से आ रहे हो?" वालक ने कहा-"मेरा नाम सूरपाल है। मै पाचालदेश्य वप्प का पुत्र है। मेरी मा का नाम भट्टी है। मेरे मन मे राज्यद्रोही शत्रजनो से युद्ध करने की भावना जागृत हुई, पर पिता ने मुझे रोक दिया। निरभिमानी पिता के पास रहना मुझको उचित नही लगा। मै घर के वातावरण से पूर्णत असतुष्ट होकर मा-बाप को विना पूछे ही यहा चला आया है। आचार्य सिद्धसेन व्यक्ति के पारखी थे। वे आकृति को देखकर उसके व्यक्तित्व को पहचान लेते थे। आचार्य सिद्धसेन ने बालक को देखकर चिंतन किया। 'अहो दिव्यरत्न न मानवमानोऽय" यह बालक सामान्य वालक नहीं दिव्य रत्न है । 'तेजसा हिन वय समीक्ष्यते'-तेजस्विता का वय से कोई अनुवध नही है । आचार्य सिद्धसेन ने बालक से कहा, "वत्स | हमारे पास रहो । सन्तो का आवास घर से भी अधिक सुखकर होता है।" विकस्वर सरोरुह पर अलि का मुग्ध हो जाना स्वाभाविक है । सूरपाल गुरु के जीवन वोधकारी प्रसाद को प्राप्त कर उनके पास रहने के लिए प्रस्तुत हो गया। आचार्य सिद्धसेन वालक को लेकर अपने स्थान पर आए। उसकी भव्य आकृति को देखकर श्रमणो को प्रसन्नता हुई। गुरु ने उन्हें
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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