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६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
"की सन्निधि मे बैठकर आगमबोध प्राप्त किया था । वर्तमान मे प्राप्त द्वादशाङ्गी के रचनाकार वे स्वयं ही थे । आगमपुरुष आचार्य सुधर्मा से बहुमुखी व्यक्तित्व का प्रभाव इस कालसीमा मे व्यापक रूप से विद्यमान रहा, अत मैंने इस सहस्र वर्ष के काल को आगम युग के नाम से सबोधित किया है ।
आचार्य सुधर्मा और जम्बू
भगवान महावीर की परपरा आचार्य सुधर्मा से प्रारंभ होती है । दिगम्बर परपरा में यह श्रेय गणधर गौतम को है । सुधर्मा की जैन सघ को सबसे महत्त्वपूर्ण देन द्वादशागी की है । द्वादशागी का दूसरा नाम गणिपिटक भी है ।' बोद्ध दर्शन जो स्थान त्रिपिटक का है और वैदिक दर्शन मे जो स्थान वेदत्रयी का है, वही स्थान जैन दर्शन मे गणिपिटक का है ।
सुधर्मा के इस आगम वैभव को उनके बाद आचार्य जम्बू ने सुरक्षित रखा था। इन दोनो आचार्यों का जैन सघ मे अत्यत गौरवमय स्थान है । महावीर के बाद ये दो ही आचार्य ऐसे थे जिन्होने सर्वज्ञत्वश्री का वरण किया था । इनके वाद यह श्री किसी को उपलब्ध नही हो सकी थी।"
श्रुतकेवली परम्परा
जैन परपरा में छह श्रुतकेवली हुए हैं ११
(१) प्रभव ( २ ) शय्यभव ( ३ ) यशोभद्र ( ४ ) सभूतिविजय ( ५ ) भद्रबाहु (६) स्थूलभद्र ।
इन छह श्रुतकेवलियो मे आचार्य भद्रबाहु का स्थान बहुत ऊंचा है। आचार्य जम्बू के बाद वीर नि० ६४ ( वि०पू० ४०६ ) से श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो की नाम परपरा विभक्त हो गयी थी । वह परपरा भद्रबाहु के समय में एक बिंदु पर आ टिकी थी। दिगम्बर परम्परा मे जम्बूस्वामी के बाद श्रुतकेवली विष्णु नन्दी मित्र, अपराजित, गोवर्धन और तदनन्तर भद्रवाह का नाम आता है ।" इन आचार्यों का कालमान १६२ वर्ष का है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जम्बू के बाद प्रभव से भद्रबाहु तक का कालमान १७० वर्ष का है । इन दोनो
८ वर्ष
का अन्तर है । भद्रबाहु के पास सम्पूर्ण द्वादशागी सुरक्षित थी, इसे दोनो सम्प्रदाय एकस्वर से स्वीकार करते है ।
द्वादशवर्षीय दुष्काल और आगमवाचना
आचार्य जम्बू के बाद दस वातो का विच्छेद हो गया था । " श्रुत की धारा आचार्य भद्रबाहु के बाद क्षीण हो गई। इसका प्रमुख कारण उस युग का द्वादशवर्षीय अकाल था । इस समय काल की काली छाया से विक्षुब्ध अनेक श्रुतधर श्रमण