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आचार्यों के काल का सक्षिप्त सिंहावलोकन ५
वौद्धधारा विदेश की ओर अधिक प्रवाहित हुई और भारत से विच्छिन्नप्राय हो गयी। वर्तमान मे भारत भूमि पर महावीर (निर्ग्रथ ज्ञातपुत्र) का सम्प्रदाय ही गौरव के साथ मस्तक ऊचा किए है। यह श्रेय कुछ विशिष्ट क्षमताओ और प्रतिभाओ को है । भगवान महावीर की उत्तरवर्ती आचार्य परम्परा मे प्रखर प्रतिमासम्पन्न तेजस्वी, वर्चस्वी, मनस्वी, यशस्वी, अनेक आचार्य हुए।
जैन गामन की श्रीवृद्धि मे उनका अनुदान अनुपम है । वे त्याग-तपस्या के उत्कृष्ट उदाहरण, नव-नवोन्मेष प्रज्ञा के धारक एव महान् यायावर श्रमण थे । तप, नियम, ज्ञानवृक्षास्ट अमितज्ञानी तीर्थंकरों ने भव्यजनो के उद्बोधनार्थं अर्थागम प्रदान किया । गणधरो ने गथा, सूत्रागम का निर्माण किया । आचार्यों ने उनको मरक्षण दिया । प्राणोत्मगं करके भी श्रुत सपदा को काल के क्रूर दुष्काल मे विनष्ट होने से बचाया। उन्होने दूरगामिनी पदयात्रा से अध्यात्म को विस्तार दिया और भगवान महावीर के भव सतापहारी सदेश को जन-जन तक पहुचाया । काल-विभाजन
भगवान् महावीर से अब तक के आचार्यों का युग महान् गरिमामय है । मैंने इनकी तीन भागो मे विभक्त किया है-आगम युग, उत्कपं युग, नवीन युग । (१) आगम युग - वीर निर्वाण १००० वर्ष तक
( विक्रम पूर्व ४७० से वि० स० ५३० तक) (२) उत्कर्ष युग - वीर निर्वाण १००० वमं मे २००० वर्ष तक ( वि० स० ५३० से १५३० तक )
(३) नवीन युग - वीर निर्वाण २००० मे २५०० तक ( वि० सं० १५३० से २०३० तक )
यह विभाजन तत्कालीन प्रवृत्तियो के प्रमुख आधारो को सामने रखकर किया गया है।
आगम युग
आगम युग वीरनिर्वाण से प्रारंभ होकर देवद्धगणी क्षमाश्रमण के समय तक सपन्न होता है । एक सहस्र वर्ष की अवधि का यह काल विविध घटना-प्रसगो को अपने मे सजोए हुए है। इस काल की मुख्य प्रवृत्ति 'आगमिक' थी। वीरवाणी को स्थायित्व प्रदान करने के लिए इस युग में कई क्रम चले । गणधर रचित अगागम निधि' का आलवन लेकर उपागो की रचना हुई और पाठ्यक्रम की सुविधा हेतु अनुयोग व्यवस्था के माध्यम से आगम-पठन की नवीन पद्धति स्थापित हुई । इन प्रवृत्तियो का प्रमुख सवध आगम से था । आचार्य सुधर्मा आगम-निधि के प्रदाता
| आगमधर आचार्यों में वे ही एक ऐसे आचार्य थे जिन्होने भगवान महावीर