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आचायों के काल का सक्षिप्त सिंहावलोकन ७
स्वर्गवासी बन गए थे । इससे श्रुत की धारा भी छिन्न-भिन्न हो गयी।
दुष्काल की परिसमाप्ति पर विच्छिन्न श्रुत को सकलित करने के लिए वी० नि० १६० (वि० पू० ३१०) के लगभग श्रमण सघ पाटलिपुन (मगध) मे एकत्रित हुआ था। आचार्य स्थूलभद्र इस महा सम्मेलन के व्यवस्थापक थे। सभी श्रमणो ने मिलकर तथा एक दूसरे से पूछकर प्रामाणिक रूप से ग्यारह अगो का पूर्णत सकलन इस समय कर लिया था। सुधर्मा युग की यह सर्वप्रथम वाचना थी। कुछ श्रमणो ने इसे मान्य नहीं किया। यही से जैन सघ मे श्रुतभेद की धुधलीसी रेखा भी उभर गयी थी।
टूटती श्रुत-शृखला और आर्य स्थूलभद्र
इस समय भद्रबाहु के अतिरिक्त वारहवा अग किसी के पास सुरक्षित नही था। यह श्रुत-व्युच्छित्ति का सबसे पहला धक्का जैन सघ को लगा था। इस क्षतिपूर्ति के लिए प्रतिभा सम्पन्न आर्य स्थूलभद्र प्रमुख विशाल श्रमण संघ नेपाल पहुचा और आचार्य भद्रबाहु से वारहवे अग की वाचना ग्रहण कर टूटती हुई श्रुत-शृखला मे आर्य स्थूलभद्र सयोजक कडी बने । श्रुतकेवली की परम्परा मे आचार्य स्थूलभद्र अन्तिम थे। उनके बाद कोई श्रुतकेवली भी नहीं हुआ। आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को अन्तिम चार पूर्वी की अर्थ-वाचना नहीं दी थी। अत अर्थदृष्टि से अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु थे। अत उनके स्वर्गवास के साथ वी० नि० १७० (वि० पू० ३००) के लगभग अर्थत चौवदह पूर्वो का विच्छेद हुआ।" दशपूर्वधर परम्परा और उल्लेखनीय प्रसग
दशपूर्वधर दस आचार्य हुए है। उनके नाम इस प्रकार हैं--(१) महागिरि (२) सुहस्ती (3) गुणसुन्दर (४) कालकाचार्य (५) स्कन्दिलाचार्य (६) रेवतिमिन (७) मगू (८) धर्म (९) चन्द्रगुप्त (१०) आर्यवच । ५
दशपूर्वधर दस आचार्यों मे आचार्य महागिरि एव सुहस्ती के जीवन-प्रसग विशेप रूप से उल्लेखनीय है। आर्य महागिरि प्रथम दशपूर्वधर आचार्य थे एव जिनकल्प तुल्य साधना करने वाले विशिष्ट साधक थे। आर्य सुहस्ती द्वितीय दशपूर्वधर आचार्य थे । आर्य महागिरि व आर्य सुहस्ती दोनो गुरुभाई आचार्य थे तथा आर्य स्थूलभद्र के प्रधान शिप्य थे।
आगम मे तीन प्रकार के स्थविर माने गए है-(१) जाति-स्थविर (२) श्रुत-स्थविर (३) पर्याय-स्थविर । साठ वर्ष की अवस्था प्राप्त व्यक्ति 'जाति स्थविर', ठाण और समवायाग का धारक निर्ग्रन्थ 'श्रुत स्थविर' एव वीस वर्ष साधुत्व पालने वाला 'पर्याय स्थविर' होता है।"