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१२ अमेय मेधा के धनी आचार्य हरिभद्र
आचार्य हरिभद्र का जीवन सहलो वर्षों के बाद भी प्रकाशमान नक्षत्र की तरह चमक रहा है। उनका जन्म चित्तौड-निवासी ब्राह्मण परिवार मे हुआ। पिता का नाम शकर मट्ट और माता का नाम गगा था। विद्या-गोत्री मे गहरी डुवकिया लगाकर वे प्रगल्भ पडित बने। चौदह प्रकार की विद्याओ पर उनका प्रवल आधिपत्य हो गया था। चित्तौड नरेश जितारि के यहा उन्हे राजपुरोहित का स्थान मिला। राजदरवार में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। घरसे राजभवन तक वे शिविका मे बैठकर जाते, उनके पीछे सरस्वती-कठाभरण, वैयाकरण-प्रवण, वादि-मत्तगज, न्याय-विचक्षण आदि विरुदावलिया बोली जाती। राजपुरोहित के सम्मान मे जयजय के नारो मे वातावरण गूजता था।
सीमातीत सम्मान पाकर विद्या-धुरीण हरिभद्र का मानस गवित हो उठा। 'बहुरत्ना वसुन्धरा 'यह वसुन्धरा विविध रत्नो को धारण करने वाली है। यह बात उन्हे अवैज्ञानिक लगी। उनकी दृष्टि मे कोई भी योग्यता उनकी तुला के पलक को उठाने में समर्थ नही थी। __हरिभद्र पडितो मे अग्रणी थे । शास्त्रविशारद विद्वानो के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए वे सदा तत्पर रहते थे। पाडित्य के अतिशय अभिमान ने उन्हे असाधारण निर्णय तक पहुंचा दिया था। ज्ञानभार से कही उदर फट न जाये, इस भय से वे पेट पर स्वर्णपट्ट वाधे रहते थे। अपने प्रतिद्वन्द्वी को धरती का उत्खनन कर निकाल लेने के लिए कुदाल, जल से खीच लेने के लिए जाल और आकाश से धरती पर उतारने के लिए सोपान प्रति समय अपने कधे पर रखते। जम्बू द्वीप मे भी उन जैसा कोई विद्वान नही है, इस बात को सूचित करने हेतु वे हाथ मे जम्बू वृक्ष की शाखा को रखते थे। उनका दर्पोन्नत मानस किसी भी व्यक्ति द्वारा उच्चारित वाक्य का अर्थ न समझने पर उसका शिष्यत्व स्वीकार कर लेने को प्रतिबद्ध था।
एक बार रात्रि को राजसभा से लौटते समय वे जैन उपाश्रय के पास से निकले । साध्वी सघ की प्रवर्तिनी 'महत्तरा याकिनी' सग्रहिणी गाथा का जाप कर रही थी