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अमेय मेधा के धनी आचार्य हरिभद्र २३६
चक्कि दुग हरिपणग पणग चक्कीण केसवो चक्की।
केसव चक्की केसव, दुचक्की केसीय चक्कीया ॥ श्लोक की 'स्वर-लहरिया' हरिभद्र के कानो मे टकरायी। उन्होने वार-बार ध्यानपूर्वक इसे सुना। मन ही मन चिन्तन चला पर वुद्धि को पूर्णत झकझोर देने के वाद भी वे अर्थ के नवनीत को न पा सके। हरिभद्र का अह पिघलकर बह गया। उपाश्रय मे जाकर महत्तरा जी से उन्होने विनम्रतापूर्वक उक्त श्लोक का अर्थ समझा और अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उनका शिष्यत्व भी स्वीकार कर लिया।
एक नारी के सामने इस तरह अपनी हार को प्रामाणिकतापूर्वक स्वीकार कर लेना हरिभद्र की विशिष्ट महत्ता का परिचायक था।
प्रभावक चरित आदि पुरातन ग्रन्थो के अनुसार प्रस्तुत पद्य की अर्थप्रदायिनी साध्वी याकिनी महत्तरा नहीं थी। इन ग्रथो का उल्लेख है-उपाश्रय मे प्रवेश करने के वाद विद्वान हरिभद्र का सबसे प्रथम प्रश्न था-इस स्थान पर चकचकाहट किस बात का हो रहा है ? अर्थहीन वाक्य का पुनरावर्तन क्यो किया जा रहा है? हरिभद्र ने यह प्रश्न अतिवक्र भाषा मे प्रस्तुत किया था। ___ याकिनी महत्तरा जी धीर-गभीर, आगम-विज्ञ और व्यवहार-निपुण साध्वी थी। उन्होंने मृदु स्वरो मे कहा-'नूतन लिप्त चिगचिगायते'–नया लिपा हुआ आगन चकचकाहट करता है। यह शास्त्रीय पाठ है। इसे गुरुगम्य ज्ञान विना समझा नही जा सकता। याकिनी के द्वारा दिए गए स्पष्ट और सारगभित उत्तर को सुनकर विद्वान् हरिभद्र प्रभावित हुए। वे झुके और वोले-"प्रसाद कृत्वा अस्य अर्थ कथयत-साध्वीश्री जी | प्रसाद करके मुझे इसका अर्थ समझाइए।" ____अपनी पूर्वप्रतिज्ञा के अनुसार शिष्य-दीक्षा प्रदान करने की बात भी उन्होने साध्वी याकिनी के सामने विनम्र शब्दो मे प्रस्तुत की। ___ साध्वी याकिनी महत्तरा जी ने जिनदत्त सूरि के पास से अर्थ समझने का निर्देश दिया। विद्वान् हरिभद्र की जिज्ञासा तीव्रतर होती जा रही थी। प्रात काल होते ही हरिभद्र जिनभद्र सूरि के पास पहुचे। उनके मार्ग मे वह मदिर भी आया जहा घुमकर सामने से आते हुए मदोन्मत्त हाथी से कभी प्राण बचाये थे। 'वपुरेव तवाचप्टे स्पष्ट मिष्टान्न भोजनम्' इस वाक्य से जिन-प्रतिमा का महान् उपहास भी उस समय उन्होने किया था। आज उस कृत्य की स्मृति भाव से उनका मन तापित हो रहा था। निर्मल भाव-भूमि से इस वार प्रस्फुटित होने वाला कविता का रूप सर्वथा भिन्न था। अधुर और शिष्ट शब्दो मे हरिभद्र गुनगुनाए
वपुरेव तवाचण्टे भगवान् वीतरागताम् ।
नहि कोटरसस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाद्वल । यह भव्य आकृति ही वीतरागता को प्रकट कर रही है । वह तरु कभी हरा नही हो सकता, जिसके कोटर मे अग्नि जल रही हो।