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२३२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य किए । मुख्यत अकलक बौद्धो के प्रतिद्वन्द्वी थे। आचार्य पदारोहण के बाद कलिग नरेश हिमशीतल की सभा में बौद्ध विद्वानो के साथ उनका छह महीने तक शास्त्रार्थ हुआ।
आचार्य अकलक की शास्त्रार्थ विषय के साथ एक रोचक घटना-प्रसग भी है। कहा जाता है बौद्ध भिक्षु घट मे तारा देवी की स्थापना करके शास्त्रार्थ करते थे। इससे वे दुर्जेय बने हुए थे। आचार्य अकलक को यह रहस्य ज्ञात हो गया था। अत उन्होने शासन देवता की आराधना की । घट फूट गया । आचार्य अकलक की विजय हुई। आचार्य अकलक की विजय का वास्तविक रहस्य उनकी वाद-प्रतिभा थी। ___ जैन समाज मे आचार्य अकलक की साहित्यनिधि को मौलिक स्थान प्राप्त
उन्होने कई ग्रन्थो का निर्माण किया। आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमासा पर उन्होने अष्टशती टीका लिखी। यह उनकी सबसे प्राचीन टीका मानी गयी है। अनेकान्त के सजीव दर्शन इस टीका मे होते है।
तत्त्वार्थ सूत्र पर उन्होने राजवार्तिक टीका लिखी। यह टीका १६००० श्लोक परिमाण है । सर्वार्थसिद्धि के वाद व्याख्या ग्रन्थो मे यह टीका अत्युत्तम मानी गयी है।
सिद्धि विनिश्चय, न्याय विनिश्चय, प्रमाण-सग्रह-ये तीनो ग्रन्थ उनकी सवल तर्कणाशक्ति के परिचायक है।
सिद्धि विनिश्चय के बारह प्रकरण है। न्याय विनिश्चय के तीन प्रकरण हैं और प्रमाण-सग्रह के नौ प्रकरण है । इन तीनो ग्रन्थो मे प्रमाण नय-सम्बन्धी विपुल सामग्री प्राप्त होती है । सिद्धि विनिश्चय मे प्रमाण-चर्चा के साथ आत्मस्वरुप का भी विवेचन है।
लघीयस्त्रयी में आचार्य अकलक ने समुचित प्रमाण-व्यवस्था प्रस्तुत की है। इन कृतियो मे न्याय की रूपरेखा अकलक न्याय के नाम से प्रसिद्ध है।
आचार्य अकलक भक्ति-परायण भी थे। अपने नाम पर अकलक स्तोत्र की रचना कर उन्होने भक्तिरस को चरम सीमा पर पहुचा दिया था।
आचार्य माणिक्यनन्दि उनके ग्रन्थो के प्रमुख पाठक रहे है। उन्होने अपने ग्रन्थो मे अकलक की न्याय पद्धति को ही विस्तार दिया है और कही-कही शब्दश अनुकरण किया है। उनका परिक्षामुख ग्रन्थ आचार्य अकलक के विचारो का स्पष्ट प्रतिविम्व है।
आचार्य विद्यानन्द, वादिराज, अनन्त वीर्य, प्रभाचन्द्र आदि विद्वानो ने आचार्य अकलक के अष्टशती, न्याय विनिश्चय, प्रमाण-सग्रह, सिद्धि विनिश्चय तथा लघीयस्त्रयी पर विस्तृत टीकाए लिखी है।