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१९६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
सिद्धो भव । " दैविक वरदान से मुकुन्द मुनि कवीन्द्र एव विद्यासम्पन्न वने । शक्ति सामर्थ्य को प्राप्त कर मुकुन्द मुनि ने श्रावक के वचनो को सत्य सिद्ध करने की बात सोची । चौराहे पर बैठ सबके सामने मूसल को धरती मे थमा, मुनि मुकुन्द बोले
अस्मादृशा अपि यदा भारति । त्वत्प्रसादत ।
भवेयुर्वादिन प्राज्ञा मुशल पुष्यता तत ॥३०॥
- भारति । तुम्हारे प्रसाद से हमारे जैसे व्यक्ति भी वादी जनो मे प्राज्ञ का स्थान प्राप्त कर सके है । अव यह मूसल भी पुष्पित हो यह कहते हुए मुनि मुकुन्द ने अचित्त जल का सिंचन देकर मत्र महात्म्य से मूसल को पुष्पवान कर दिखाया । *
वृद्धावस्था मे अनवरत अध्ययन प्रवृत्त मुनि मुकुन्द को देखकर - " मूसल के फूल लगाओगे क्या ?" इस प्रकार फब्तिया कसने वाले वांचाल व्यक्तियो के मुनि मुकुन्द ने मुह वद कर दिए थे ।
वाद-गोष्ठियो मे मुनि मुकुन्द सर्वत्र दुर्जेय बन चमके । अप्रतिमल्लवादी के रूप मे उनकी महिमा महकी ।
वृद्धावस्था मे दीक्षित मुनि मुकुन्द वाद - कुशल आचार्य होने के कारण वृद्धवादी नाम से प्रसिद्ध हुए ।
सब प्रकार से योग्य समझकर वादजयी वृद्धवादी को आचार्य स्क दिल ने अपने उत्तराधिकारी के रूप मे नियुक्त किया । "
जैन शासन सरोवर के उत्पन्न दल को विकसित करने वाले महाभास्कर आचार्य स्कदिल के स्वर्गगमन के पश्चात् भृगुपुर के वहिर्भूभाग मे आचार्य वृद्धवादी का शास्त्रार्थ संस्कृत भापा के महाप्राज्ञ आचार्य सिद्धसेन के साथ हुआ था । यह सारा प्रकरण आचार्य सिद्धसेन प्रकरण मे चर्चित हुआ है । संस्कृत भाषा के महाप्राज्ञ आचार्य सिद्धसेन के गुरु शास्त्रार्थ - जयी आचार्य वृद्धवादी का काल वी० नि० की दसवी शताब्दी के वाद का है ।
आधार-स्थल
१ विद्याधरवराम्नाये
चिन्तामणिरिवेष्टद
आसोच्छ्रीस्कन्दिलाचार्य पादलिप्तप्रभो कुले ॥५॥
२
यतिरेको युवा तस्मै शिक्षामक्षामधीदंदी | मुने । विनिद्रिता हिस्रजीवा भूतद्रुहो यत ॥ १६ ॥
( प्रभा० च०, पृ० ५४ )
( प्रभा० च०, पृ० ५८ )