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१. बोधिवृक्ष आचार्य वृद्धवादी
वृद्धावस्था मे दीक्षित होकर विद्वानो मे अपना सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त करने वाले आचार्य वृद्धवादी थे। वे वाद-कुशल आचार्य थे। उनका गृहस्थ जीवन का नाम मुकुन्द था। गौड देश के कौशल ग्राम के विप्र परिवार में उनका जन्म हुआ। विद्या धरणेन्द्र गच्छ के आचार्य पादलिप्त की परम्परा मे चिन्तामणि की भाति सकल चिन्तापहारी आचार्य स्कदिल थे।' पूर्ण वैराग्य के साथ मुकुन्द ने उनके पास दीक्षा ग्रहण की।
विकाम का अनुवध अवस्था मे अधिक हार्दिक उत्साह से जुडा रहता है। व्यक्ति का अदम्य उत्साह हर अवस्था मे सभी प्रकार के विकास का द्वार उद्घाटित कर सकता है । मुनि मुकुन्द का जीवन इम वात को प्रमाणित करने के लिए सवल उदाहरण है।
घटना भृगुपुर की है। नव दीक्षित वृद्ध मुनि मुकुन्द मे ज्ञानार्जन की तीन उत्कठा थी। वे प्रहर रात्रि बीत जाने के बाद भी उच्चघोप से अप्रमत्त भावेन स्वाध्याय करते रहते थे। उनकी गुण निप्पन्नकारक यह स्वाध्याय प्रवृत्ति दूसरोकी नीद मे विघ्न-विधायक थी। गुरुवर्य ने मुनि मुकुन्द को प्रशिक्षण देते हुए कहा"तुम्हारी यह उच्चध्वनिक स्वाध्याय अन्य लोगो की नीद मे अन्तरायभूत होने के कारण कर्म वध का कारण है । हिंस्र पशुओ के जागरण से अनर्थ दड की सभावना भी है। अत नमस्कार मन्त्र का जाप अथवा ध्यानमय आभ्यन्तर तप ही श्रेष्ठ मार्ग है।
सुविनीत मुनि मुकुन्द ने आचार्य देव से प्रशिक्षण पाकर दिन में स्वाध्याय करना प्रारम्भ कर दिया । ज्ञान की तीव्र पीपासा उन्हे विश्राम नही करने देती थी। प्रतिपल अप्रमत्त भाव मे लीन दृढ सकल्पी, महा अध्यवसायी, अनवरत जागरुक, स्वाध्याय प्रवृत्त मुनि मुकुन्द का कर्णभेदक उच्चघोप श्रावक-श्राविका समाज को अखरा। किसी व्यक्ति ने व्यग कसा-"मुने । आप इतनी स्वाध्याय करके क्या मूसल (शुष्क लकडी) को पुष्पित करोगे? श्रावक द्वारा कही गयी यह वात मुनि मुकुन्द के हृदय में तीर की भाति गहरा घाव कर गयी। उन्होने ब्राह्मी विद्या की आराधना मे इक्कीस दिन का तप किया। देवी प्रकट होकर वोली-"सर्वविद्या