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१३२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य की उपलब्धि आचार्य पादलिप्त को हुई।
एक बार पादलिप्न के वैदुष्य से प्रभावित लाट देश के पण्डितो ने उनसे प्रश्न किया
पालित्तय । कह सु फुड सयल महिमडल भमतेण। दिट्ट सुय च कत्थ वि चदणरससीयलो अग्गी ॥१०॥
(प्रभा० चरित, पृ० ३१) महिमण्डल पर भ्रमण करते हुए आपने कही अग्नि को चन्दन रस के समानः शीतल देखा या सुना है ? पादलिप्त ने त्वरा से काव्यमयी भाषा मे उत्तर दिया
अयसाभियोग सदूमियस्स पुरिसस्स सुद्धहिययस्स। होइ वह तस्स दुह चदणस्स सीयलो अग्गी ॥१११॥
(प्रभा० चरित, पृ० ३२) -----जो व्यक्ति पवित्र हृदय के है उन्हे अपनी अकीर्तिजन्य दुख के सामने अग्नि भी शीतल चन्दन के समान प्रतीत होती है।
आचार्य पादलिप्त की प्रत्युत्पन्न प्रतिभा का प्रभाव विद्वानो के हृदय मे गहरा अकित हो गया।
यही पर खप्टाचार्य के शिष्य मुनि महेन्द्र से पादलिप्त का मिलन हुआ था। दक्षिण दिशा में परिभ्रमण करते हुए आचार्य पादलिप्त ने प्रतिष्ठानपुर की ओर प्रस्थान किया। उनके आगमन की चर्चा वहा के दानवीर शामक शातवाहन की विद्वन्मडली मे चली। पण्डितो ने शरद्कालीन सघन (जमा हुआ) घृत मे भरा कटोरा एक व्यक्ति के साथ उनके सम्मुख भेजा। आचार्य पादलिप्त तीक्ष्ण प्रतिभा के धनी थे। वे विद्वानो की भावना को भाप गए। उन्होने घृत मे सूई डालकर कटोरे को लौटा दिया। विद्वानो का अभिमत था एवमेतन्नगर विदुपा पूर्ण मास्ते, यथा घृतस्य पान तस्माद्विमृश्य प्रवेष्टव्यम् ।।
(प्रवन्धकोश, पृ० १४, पक्ति १४) --शातवाहन की नगरी घृत से भरे कटोरे की भाति विद्वानो से भरी है।' इस बात का नगरी मे प्रवेश करने से पूर्व भली भाति चिन्तन कर ले।
आचार्य पादलिप्त का उत्तर था
"घृत से भरे कटोरे मे जैसे सूई समा गयी है उसी प्रकार विद्वानो से मण्डित शासक शातवाहन की नगरी मे मैं प्रवेश पा सकगा।" आचार्य पादलिप्त की विद्वत्ता का शातवाहन की विद्वन्मण्डली पर भारी प्रभाव हुआ। आचार्य पादलिप्त के नगर-प्रवेश के ममय विद्वद् वर्ग सहित नप ने सम्मुख जाकर स्वागत किया।
यात्रा के क्रम में एक बार आचार्य पादलिप्त सौराष्ट्र मे विहरण करते हुए ढकापुरी में पहुंचे। वही पर उनको नागार्जुन शिष्य की उपलब्धि हुई। क्षत्रिय