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पारस पुरुष आचार्य पादलिप्त १३१
भिधीये ।" - मुझे गगन गमन मे उपायभूत पादलेप विद्या का दान करे जिससे में पादलिप्तक कहलाऊ ।
एक मान की वृद्धि मात्रा से पलित शब्द को विलक्षण अर्थ प्रदायिनी मुनि नागेन्द्र की प्रज्ञा पर गुरु पसन्न हुए और उन्होने पादलेप से प्राप्त गगनगामिनी विद्या शिष्य को प्रदान की। इस विद्या के आधार पर ही मुनि नागेन्द्र का नाम पादलिप्न प्रसिद्ध हो गया था।
प्रभावक चरित मे पादलिप्तक के स्थान पर पादलिप्त शब्द है- "पादलिप्तो भवान् व्योमयानमिद्ध या विभूषित " ॥८१॥
प्रस्तुत मदभं मे मैंने पादलिप्न एव पादलिप्त दोनों शब्दो का प्रयोग किया
है ।
दम वर्ष की अवस्था मे गुरु ने उन्हें नाचार्य पद पर नियुक्त किया ।' आचार्य पादलिप्न के शिशुकाल मे ही गुरु ने उनकी माता ने बालक के सघ मुख्य होने का संकेत कर दिया था। गुरु की भविष्यवाणी मत्य प्रमाणित हुई ।
एक बार आचार्यं पादलिप्न का मथुरा से पाटलीपुत्र मे पदार्पण हुआ । पाटलीपुत्र का राजा मुरुण्ड था। छह महीनों से उसे मस्तिष्क- पीडा वाधित कर रही थी । अनेक प्रकार के उपचार किए गए पर किसी प्रकार की चिकित्सा वेदना को उपमान्त न कर सको । राजपरिवार मे निराशा छा गयी थी। तभी महाप्रभावी आचार्य पादलिप्त के आगमन की बात सुनी। राजा का आदेश प्राप्त कर मत्ती
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पादलिप्न के पास गया और निवेदन किया
शिरोनिनिवत्यंताम्, कीर्तिधर्मो
मचीयेताम् "
( प्रबन्धकोश, पृ० १२, पक्ति २५ ) आर्य । राजा के मस्तिष्क- पीडा को निर्वर्तन कर कीति धर्म का उपार्जन करें । मत्री की प्रार्थना पर आचार्य पादलिप्त वहा पहुचे ।
प्रदेशिनी अगली को अपने जानु पर घुमाकर क्षण-भर में उन्होने राजा के मिरदर्द को ठीक कर दिया ।" कला-कौशल मे किसी भी व्यक्ति को अपना बनाया जा सकता है । पादलिप्त की मत्र-विद्या से पूर्ण स्वस्थता को प्राप्त कर महाराज मुरुण्ड उनके परम भक्त वन गए। इस घटना के सम्बन्ध मे प्रसिद्ध श्लोक है जह जह परमिणि जाणुर्यामि पालित्तउ नमाडेइ । तह तह से सिरवियणा पणस्सई
मुरण्डरायस्स ॥ ५६ ॥
( प्रभा० चरित, पृ० ३० ) महाराज मुरुण्ड एव पादलिप्त से सम्बन्धित कई घटनाए इतिहास - प्रसिद्ध एव पादलिप्त के वुद्धि-कौशल की परिचायिकाए है ।
शत्रुञ्जय की यात्रा करते समय आचार्य पादलिप्त का मिलन निमित्त विद्या निष्णात श्रमण सिंह सूरि और रौद्र देव सूरि से हुआ था। उनसे प्रभावक विद्याओ