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१३० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
ज्ञापन कर महान् आशा के साथ वह अपने गृह लोटी । श्रेष्ठी फुल्लचन्द्र भी पत्नी प्रतिमा से समग्र वृत्तान्त सुनकर प्रसन्न हुए और गुरुचरणो मे प्रथम सन्तान को समर्पित कर देने की बात को भी उन्होंने पर्याप्त समर्थन दिया ।
काल मर्यादा सम्पन्न होने पर प्रतिमा ने कामदेव से भी अधिक रूपसम्पन्न, सूर्य से भी अधिक तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया । पुत्र के गर्भकाल मे प्रतिमा ने नाग का स्वप्न देखा था । स्वप्न के आधार पर पुत्र का नाम नागेन्द्र रखा गया । माता की ममता और पिता के वात्सल्य से परम पुष्टता को प्राप्त वालक दिनप्रतिदिन विकास को प्राप्त होता रहा एव परिजनो के स्नेहसिक्त वातावरण मे वह बढता गया ।
पुत्र जन्म से पूर्व ही उसे धर्म सघ को समर्पित कर देने हेतु प्रतिमा वचनवद्ध हो चुकी थी, अत पूर्ण जागरूक रहकर अभिभावक वर्ग ने नागेन्द्र को सरक्षण दिया ।
शुभ लग्न एवं शुभ मुहूर्त मे अष्टवर्षीय नागेन्द्र को आचार्य नागहस्ती ने दीक्षा प्रदान की । मण्डन मुनि की अध्यक्षता मे बालक मुनि का अध्ययन प्रारम्भ हुआ।
मुनि नागेन्द्र की शीघ्रग्राही बुद्धि थी । स्वल्प समय मे ही अनेकविध विषयो के साथ लक्षण, प्रमाण साहित्य पर उनका अच्छा अधिकार हो गया । *
एक दिन मुनि नागेन्द्र जल लाने के लिए गए । गोचरी से निवृत्त होकर उपाश्रय मे लौटने के बादईर्यां पथिकी आलोचना करने के बाद गुरु के समक्ष उन्होने एक श्लोक बोला
अव तवच्छीए अफ्फिय पुफ्फदतपतीए । नवसालिकजिय नवबहूइ कुडएण मे दिन्न ||३८||
( प्रभा० च०, पृ० २६ ) ताम्र की भाति ईषत् रक्ताभ, पुष्पोपम दन्तपक्ति की धारिणी नववधू मृण्मय पात्र से यह काजी जल प्रदान किया है ।
शिष्य के मुख से शृगारमयी भाषा मे काव्य को सुनकर गुरु कुपित हुए रोपारुण स्वरो मे वे बोले – “पलिनओसि ।" यह शब्द प्राकृत भाषा का रूप है एव रागाग्नि से प्रदीप्त भावो का द्योतक है ।
सद्योत्तर प्रतिभा मुनि नागेन्द्र के पास थी । गुरुद्वारा उच्चारित शब्द को अर्थान्तरित कर देने हेतु मुनि नागेन्द्र ने नम्र होकर कहाँ --"आर्य । पलित्त मे एक मात्रा बढाकर उसको पालित्त बना देने का मुझे आप द्वारा प्रसाद प्राप्त हो । मात्रा वृद्धि से पलित्तओ का संस्कृत मे पादलिप्त हो जाता है । पादलिप्त शब्द से मुनि नागेन्द्र का तात्पर्य था
"गगनगमनोपायभूता पादलेपविद्या मे देहि येनाह ' पादलिप्तक' इत्य
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