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________________ क्रान्ति-चरण आचार्य कालक (द्वितीय) १२१ मार्गवर्ती वस्तियो को पार करते हुए वे मुदूर स्वर्णभूमि मे सुशिष्य सागर के पास पहुंचे। आगम वाचनारत शिष्य मागर ने उन्हे सामान्य वृद्ध साधु समझकर अभ्युत्थानादिपूर्वक कोई स्वागत नही किया। अर्थ-पौरुपी (अर्थवाचना) के समय शिष्य सागर ने सम्मुखीन आचार्य कालक को सकेत करते हुए पूछा-"खत । मेरा कथन समझ में आ रहा है ?" आचार्य कालक ने 'आम्' कहकर स्वीकृति दी। सागर सगर्व बोले-"वृद्ध | अवधानपूर्वक सुनो।" आचार्य कालक गम्भीर मुद्रा मे बैठे थे । आर्य सागर अनुयोग प्रदान मे प्रवृत्त हो गए। ___अवन्ति मे आचार्य कालक के शिप्यो ने देखा-उनके बीच में आचार्य कालक नहीं हैं। उन्होने इधर-उधर टूटा पर वे कही न मिले । शय्यातर से जाकर पियो ने पूछा--"आचार्य देव कहा है ?" मुखमुद्रा को वक्र बना शय्यातर ने कहा-"आपके माचार्य ने आपको भी कुछ नहीं कहा, मुझे क्या कहते ?"शिष्यो ने पुन आचार्य कालक को ढूढने का प्रयत्न किया पर वे असफल रहे। आग्रहपूवक पूछने पर शाय्यातर ने कठोर रुस बनाकर शिष्यो से कहा-"आप जैसे अविनीत शिष्यो की अनुयोग ग्रहण करने मे अलसता के कारण खेद-खिन्न आचार्य कालक स्वर्णभूमि मे प्रशिष्य सागर के पाम चले गए है।" शय्यातर के कटु उपालम्भ से लज्जित, गुरु के विना अनाश्रित, उदासीन शिष्यो ने तत्काल भवन्ति से स्वर्णभूमि की ओर प्रस्थान कर दिया। विशाल सघ को विहार करते देख लोग प्रश्न करते-"कोन आचार्य जा रहे हैं ?" शिष्य कहते- 'आचार्य कालक ।" यह वात कानो-कान तेल-विन्दु की तरस प्रसारित हो गयी। श्रावक वर्ग ने आर्य सागर से निवेदन किया-"विशाल परिवार सहित आचार्य कालक आ रहे हैं।" अपने दादा गुरु के आगमन की बात सुन उन्हे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। पुलकितमना होकर आर्य सागर ने अपने शिप्य वर्ग से गुरु के आगमन की सूचना दी और कहा-"मैं उनसे कई गम्भीर प्रश्न पूछकर समाहित बनूगा।" शीघ्र गति से चलते हुए आचार्य कालक के शिष्य स्वर्णभूमि मे पहुचे और स्वागतार्थ सामने आए हुए श्रमण सागर के शिष्यो से पूछा-"आचार्य कालक यहा पधारे हुए हैं ?" उत्तर मिला-"एक वृद्ध श्रमण के अतिरिक्त कोई नहीं आया।" उपाश्रय मे पहुचकर आचार्य कालक को कालक के शिष्यो ने सभक्ति वन्दन किया। नवागन्तुक श्रमण संघ द्वारा अभिवन्दित होते देखकर आर्य सागर ने आचार्य कालक को पहचाना। अपने द्वारा कृत अविनय के कारण उन्हे लज्जा की अनुभूति हुई।"हृदय अनुताप से भर गया । गुरुदेव के चरणो मे गिरकर क्षमा मागी। विनम्र स्वरो मे पूछा-"गुरुदेव, मैं अनुयोग वाचना उचित प्रकार से दे रहा था?" आचार्य कालक ने कहा- "तुम्हारा अनुयोग सम्यक् है, पर गर्व मत करना । ज्ञान अनत है, मुष्टि-भर धूलिराशि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर एव दूसरे स्थान से तृतीय स्थान पर रखते-उठाते समय वह न्यून-न्यूनतर होती
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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