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१२२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
जाती है | तीर्थकर प्रतिपादित ज्ञान गणधर आचार्य, उपाध्याय के द्वारा हम तक पहुचते-पहुचते वह अल्प- अल्पतर हो गया है ।" आचार्य कालक ने प्रशिष्य सागर को अनेक प्रकार का प्रशिक्षण दिया एव वे अनुयोग - प्रवर्तन मे भी लगे ।
आचार्य कालक का जीवन विस्मयकारी प्रसगो से सयुक्त है । अन्यायी राजा का प्रतिकार करने के लिए और उसे सबल सबक सिखाने के लिए भारत की सीमा को पार कर विदेश जाना, शाहो के साथ मैत्री स्थापित करना, शक सामन्तो के विशाल दल के साथ नौका से सिन्धु को पारकर भारत पहुचना, युद्ध का सवल मोर्चा बनाकर अवन्ति पर आक्रमण करना, गर्दभिल्ल जैसे शक्तिसामर्थ्य से युक्त शासक को पराभूत कर उसे देश से निष्कासित कर देना तथा शको को राजसिंहासन पर स्थापित कर भारतीय राजनीति की एक नई तस्वीर गढ देना आचार्य कालक के सुदृढ मनोवल एव सशक्त व्यक्तित्व का परिचायक है । आचार्य कालक गंभीर चिन्तक थे । उन्होने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, राग-द्वेष का परिहार, धर्मध्यान व शुक्लध्यान इन आठ प्रकार के पुष्पो से आत्मा की अर्चा को कल्याण का मार्ग बताकर विशुद्ध अध्यात्म भाव का प्रतिपादन किया है। *
आचार्य कालक का भूभ्रमण भी बहुत विस्तृत था । पश्चिम में ईरान एवं दक्षिण पूर्व मे जावा, सुमात्रा तक की पदयात्रा करने का श्रेय उन्हे है । विदेश यात्रा आचार्यों की परम्परा मे सर्वप्रथम द्वार आचार्य कालक ने खोला ।
आचार्य कालक का शिष्य सघ विशाल था । पर उनके साथ आचार्य कालक का दृढ अनुवध नहीं था । अविनीत शिष्यो के माथ रहने से कर्म वधन ही होगा, यह सोच वे एकाकी पदयात्रा पर चल पडे थे । यह प्रसग उनके निर्लेप माघना जीवन का प्रशस्त निदर्शन है ।
आचार्य कालक का निमित्त एव ज्योतिप-सबधी ज्ञान अत्यन्त विशद था । " यह विद्या उन्होने प्रतिष्ठानपुर में आजीवको के पास ग्रहण की थी।"
चतुर्थी को सवत्सरी मनाने के उनके सर्वथा मद्यस्क निर्णय को सघ ने एक रूप में मान्य किया । इसमे प्रमुख हेतु आचार्य कालक का तेजस्वी व्यक्तित्व ही था । आचार्य कालक की परम्परा मे पाडिल्य शाखा का निर्माण हुआ ।
जैन समाज पर अतिशय प्रभाव छोडकर आचार्य कालक ने स्वर्ग-गमन किया। गर्दभित्ल की राजच्युति एव शको के अवन्ति राजसिंहासन पर आरोहण का समय वी० नि० ४५३ (वि० पू० १७ ) है । इम आधार पर आचार्य कालक वी० नि० की पाचवी सदी के विद्वान् सिद्ध होते है ।