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१२० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
ओर से अनुकूल परीप उत्पन्न हुआ जानकर आचार्य कालक ने पावम के मध्य ही विहार कर दिया । ग्रन्थान्तर के अनुसार आचार्य कालक का यह विहार 'अवन्ति' से हुआ था ।
आचार्य कालक विहार कर प्रतिष्ठानपुर पधारे। प्रतिष्ठानपुर का शासक शातवाहन जैन धर्म के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु श्रावक था । पोरजनो सहित शासक शातवाहन ने आचार्य कालक का भारी सम्मान किया । भाद्रव शुक्ला पचमी का दिन निकट था । सवत्सरी पर्व को अत्यन्त उत्साह के साथ मनाने की चर्चा चल रही थी । प्रतिष्ठानपुर में इसी दिन इन्द्रध्वज महोत्सव भी मनाया जाता था । शासक शातवाहन दोनो पर्वों के कार्यक्रम से लाभान्वित होना चाहता था । उसने प्रार्थना की "आर्य । सवत्सरी पर्व पष्ठी को मनाया जाए, जिससे मैं भी इस पर्व की सम्यक् आराधना कर सकू।" आचार्य कालक मर्यादा के प्रति दृढ थे । राजभय से इस महान तिथि का अतिक्रमण करना उनकी दृष्टि में उचित नही था । उन्होने निर्भय होकर कहा - "मेरु प्रकम्पित हो सकता है। पश्चिम दिशा मे रवि उदय हो सकता है, पर इस पर्व की आराधना मे पचमी की रात्रि का अतिक्रमण नही हो सकता। राजा ने पर्व को चतुर्थी के दिन मनाने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया आचार्य कालक की दृष्टि मे इस पर्व को एक दिन पूर्व मनाने मे कोई वाधा नही थी । उन्होने शातवाहन के इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया । अतिशय उल्लास के साथ गर्दभिल्ल उच्छेदक आचार्य कालक
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नेतृत्व में सर्वप्रथम
चतुर्थी के दिन सवत्सरी पर्व मनाया गया ।
देश-देशान्तर मे विहरण करते हुए आचार्य कालक का पदार्पण एक वार अवन्ति मे हुआ । इस समय आचार्य कालक वृद्धावस्था में थे । वार्धक्य की चिन्ता न कर वे अपने शिष्य वर्ग को अत्यन्त जागरूकता के साथ आगम वाचना देते थे । आचार्य कालक जैसा उत्साह उनके शिष्य वर्ग मे न था । वे आगम वाचना ग्रहण करने मे अत्यन्त उदासीन थे। अपने शिष्यो के इस प्रमत्तभाव से आचार्य कालक खिन्न हुए । उनको शिक्षा देने की नीयत से आचार्य कालक ने शिष्य- सघ से अलग हो जाने की बात सोची । शय्यातर के पास जाकर आचार्य कालक बोले—“मैं अपने अविनीत शिष्य सघ को यहा छोडकर इन्हे विना सूचित किए ही अपने प्रशिष्य सागर के पास स्वर्णभूमि की ओर जा रहा हू । सोचता हू शिष्यो द्वारा अनुयोग न ग्रहण करने पर मेरा इनके बीच मे रहने से कोई उपयोग नही है प्रत्युत इन शिष्यो की उच्छ खलता कर्मबन्धन का हेतु है । हो सकता है मेरे पृथक्त्व से वे सभल जाए और उन्हे अपनी भूल समझ मे आ जाए । पर मेरे चले जाने की सूचना शिष्य वर्ग को अत्यन्त आग्रहपूर्वक पूछने पर उन्हें सरोष स्वरो मे बताना ।" शय्यातर को इस प्रकार अपना कथ्य पूरी तरह से समझाकर शिष्यो के उठने से पहले ही गुप्त रूप से आचार्य कालक ने विहार कर दिया।