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________________ सद्धर्म-धुरीण आचार्य सुहस्ती १०३ सहस्ती के सामने भद्रापुन उपस्थित हआ। अपने ही द्वारा गृहीत साधुवेश की मुद्रा मे अवन्ति सुकुमाल को आर्य सुहस्ती ने प्रस्तुत देखा और उसकी वैराग्यमयी तीव्र विचारधारा को परखा।माधना सोपान पर वढने के लिए उत्तरोत्तर उत्कर्प भाव को प्राप्त अवन्ति सुकुमाल को परम कारुणिक मार्य सुहस्ती ने श्रमण दीक्षा प्रदान की। कमल-सी कोमल शय्या पर सोने वाले भवन्ति सुकुमाल दीर्घकालीन तपस्या के द्वारा कर्म निर्जरा करने मे अपने-आपको अक्षम पा रहे थे। दीक्षा के प्रथम दिन ही गुरु से आदेश प्राप्त कर यावज्जीवन अनशनपूर्वक कठोरमाधना करने के लिए वहा से प्रस्थित हुए और श्मशान भूमिका की ओर बढे । नगे पाव चलने का उन्हे अभ्याम भी नहीं था। पथ मे मुतोटण काटो और ककरो के प्रहार द्वारा उनके वोमल पदतल मे रक्तविन्दु टपकने लगे। पथगत बाधाजनित क्लेश को समतापूर्वक महन करते हुए अवन्ति सुकुमाल मुनि निर्णीत स्थान तक पहुचे एव श्ममान के शिलापट्ट पर अनशनपूर्वक ध्यानस्थ हो गए । मध्याह्न के तीव्र आतप ने उनकी पडी परीक्षा ली एव पच नमस्कार मन का स्मरण करने लगे। दिन टला, रजनी का आगमन हुआ। मुकोमल मुनि के चरणो से टपको रक्तवदो से मिश्रित पथ के धुलिकणो की दुर्गन्ध क्षुधात शिशुओं के माथ मामभक्षिणी जम्बुकी को खीच लायी। उमने रक्ताप्लावित मुनि के तलवो को चाटा। कृतान्त सहोदरा की भाति वह मुनि के वपु का भक्षण करने लगी। चम का आवरण चट-चटरता टूटता गया। माम, मेद और मज्जा के स्वाद मे लुब्ध शृगालिनी रयत मनी कशेरुका (पीठ की हड्डी), पर्णका (पापर्व की हड्डी), करोटि (मम्तका की हड्डी), कपालास्थियो का भी चर्वण करने लगी। उसके शिणु परिवार ने और उमने मिलकर प्रथम प्रहर मे मुनि के परी को, द्वितीय प्रहर में जघा को, तृतीय प्रहर मे उदर को और चतुर्थ प्रहर मे मुनि के शरीर को निगल लिया । तव अस्तित्व का बोध कराता हुआ ककाल मान अवशिष्ट रह गया था। उत्तरोत्तर चढती हुई भावना की श्रेणी मुनि को अपने लक्ष्य तक पहुचा गयी। धैर्य से भयकर वेदना को सहते हुए भद्रापुन अवन्ति सुकुमाल नलिनी गुल्म विमान को प्राप्त हुए। देवताओ ने आकर उनका मृत्यु महोत्सव मनाया । महानुभाव | महासत्त्व ' कहकर मुनि के गुणो की प्रशसा की। भद्रापुत्र की पत्नी ने आचार्य सुहस्ती की परिपद् मे भद्रापुत्र को नहीं देखा। उसने वन्दन कर मुनीन्द्र से पूछा-"भगवन्, मेरे पति कहा है " सुहस्ती ने ज्ञानोपयोग के बल पर अवन्ती सुकुमाल की पत्नी से समन वृत्तान्त कह सुनाया। पुत्रवधू के द्वारा अपने पुत्र के स्वर्गवास की सूचना प्राप्त कर भद्रा पागल की भाति दौडती हुई श्मशान भूमि में पहुची। वहा पुन के अस्थिपजर को देखकर
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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