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१०२ जैन धर्म के प्रभावक्र आचार्य
उदारचेता शासक था। उसने जनता को सहायता प्रदान करने के लिए अन्न के भण्डार खोल दिए थे। श्रमण वर्ग को भी सम्राट् की इस प्रवृत्ति से भिक्षाचरी सुलभ हो गयी थी। सम्राट् सम्प्रति के अत्यधिक प्रभाव के कारण विन्दुसार के युग की यह घटना सम्प्रति युग के साथ सयुक्त हुई प्रतीत होती है।
सम्राट अशोक की भाति सम्राट् सम्प्रति भी महान् धर्म-प्रचारक था। आन्ध्र आदि अनार्य देशो मे जैन धर्म को प्रसारित करने का श्रेय उसे है । आर्य सुहस्ती से सम्यक्त्व-बोध एव श्रावक व्रत दीक्षा स्वीकार करने के बाद सम्राट् सम्प्रति ने अपने सामन्त वर्ग को भी जैन सस्कार दिए तथा राजकर्मचारी वर्ग को मुनिवेश पहनाकर द्रविड,महाराष्ट्र, आन्ध्र आदि देशो मे उन्हे भेजा था। जैन-विहित सोधुमुद्रा से विभूषित राज सुभट अपरिचित अनार्य देशो मे घूमे तथा उन लोगो को साधुचर्या से अवगत कराने हेतु आधाकर्मादि दोष-विवजित आहार को ग्रहण कर जैन मुनियो की विहारचर्या योग्य भूमिका प्रशस्त की। प्रवल धर्म-प्रचारक आर्य सुहस्ती ने सम्राट् सम्प्रति की प्रार्थना पर अपने शिष्य वर्ग को अनार्य देशो में भेजा था। मिथ्यात्वतिमिराछन्न उन क्षेत्रो में अध्यात्म का दीप प्रज्वलित कर श्रमण लौटे। उस समय आर्य सुहस्ती ने उनसे अनार्य लोगो के विभिन्न अनुभव सुने थे।"
एक वार आर्य सुहस्ती श्रेष्ठी पत्नी भद्रा के 'वाहन कुट्टी' स्थान मे विराजे थे। रात्रि के प्रथम पहर मे वे 'नलिनी गुल्म' नामक अध्ययन का परावर्तन (स्वाध्याय) कर रहे थे। निशा का नीरव वातावरण था। भद्रापुत्र अवन्ति सुकुमाल अपनी वत्तीस पलियो के साथ उपरितन साप्त भौमिक प्रासाद मे आमोद-प्रमोद कर रहे थे। स्वाध्यायलीन आचार्य मुहस्ती की मधुर शब्द-तरगे अवन्ति सुकुमाल के कानोसे टकरायी। उसका ध्यान शास्त्रीय वाणी पर केन्द्रित हो गया। नलिनी गुल्म अध्ययन में वर्णित नलिनी गुल्म विमान का स्वरूप उसे परिचित-सा लगा। ऊहा-पोह करते-करते भद्रापुत्र को जातिस्मरण-ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने अपना पूर्व भव देखा और एक नया रहस्य उद्घाटित हुआ। अवन्ति सुकुमाल अपने पूर्व भव मे नलिनी गुल्म विमान का देव था। ___नलिनी गुल्म विमान को पुन प्राप्त कर लेने की उत्कट भावना ने उसे मुनि बनने के लिए प्रेरित किया। आर्य सुहस्ती के पास पहुचकर अवन्ति सुकुमाल ने अपनी भावना प्रस्तुत की। साधु जीवन की कठोर चर्या का बोध देते हुए आर्य सुहस्ती ने कहा-"वत्स | तुम सुकुमाल हो । मुनि-जीवन मोम के दातो से लोह के चने चबाने के समान दुष्कर है।"
अवन्ति सुकुमाल अपने निर्णय पर दृढ था। उसे न मुनि-जीवन की कठोरता का बोध अपने लक्ष्य से विचलित कर सका, न रूपवती बत्तीस पलियो का आकर्षण एव भद्रा मा की ममता निर्णीत पथ से हटा सकी।
भद्रा के द्वारा अनुमति न मिलने पर भी मुनि-परिधान को पहनकर आय