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________________ सद्धर्म-धुरीण आचार्य सुहस्ती १०१ आर्य महागिरि जब आर्य सुहस्ती से मिले, घोर दुष्काल मे भी साधुओ को 'पर्याप्त एव विशिष्ट भोजन मिलता देख आर्य महागिरि को राजपिण्ड तथा सदोषआहार की शका हुई । उन्होने आर्य सुहस्ती से समग स्थिति को जानना चाहा। गवेपणा किए विनाही आर्य सुहस्ती वोले-"यथा राजा तथा प्रजा।" प्रजा राजा की अनुगा होती है। यही कारण है-राजा की भक्ति के अनुसार प्रजा मे भी धार्मिक अनुराग है । तेली तेल, घृत वेचने वाला घी, वस्त्र के व्यापारी वस्त्र अपने-अपने भण्डार से मुनि वर्ग को सभी यथेप्सित वस्तुओ को प्रदान कर रहे है। ___ आर्य महागिरि आर्य सुहस्ती के उपेक्षा-भरे उत्तर से विक्षुब्ध हुए । वे गम्भीर होकर वोले-"आर्य आगमविज्ञ होकर भी शिष्यो के मोहवश जान-बूझकर इस मिथिलाचार को पोपण दे रहे हो?" आर्य महागिरि चरित्र निष्ठ, ऊर्ध्वचिन्तक, निर्दोप परम्परा के पक्षपाती आचार्य थे। सघ व शिष्यो का व्यामोह उनके निर्मल मानस मे कभी अपना स्थान नपा सका। गण मे शिथिलाचार को पनपते देख उन्होने तत्काल प्रतिभासम्पन्न प्रभावी शिप्य सहस्ती से भी अपना साम्भोगिक (भोजन आदि का व्यवहार) सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था। आर्य सुहस्ती आर्य महागिरि को गुरुतुल्य सम्मान देते थे। उनके कठिन 'उपालम्भ को सुनकर भी वे क्षमाशील बने रहे। उनके चरणो मे गिरे । अपने दोप के लिए उन्होंने क्षमायाचना की तथा पुन ऐसा न करने के लिए वे सकल्पबद्ध हुए । आर्य मुहस्ती की विनम्रता के सामने आर्य महागिरि झुके। उन्होने अपना विचार एव साम्भोगिक सम्बन्ध की विच्छिन्नता के प्रतिवन्ध को हटा दिया, पर भविष्य मे मनुष्य की मायाप्रधान प्रवृत्ति का विचार कर अपना आहार-व्यवहार उनके साथ नहीं किया। मरल, सुविनीत, मृदुस्वभावी, पूर्वज्ञान गुणसम्पन्न आर्य सुहस्ती ने महनीय महिमाशाली आर्य महागिरि के सुदृढ अनुशासनात्मक व्यवहार से प्रशिक्षण पाकर अपनी भूल का सुधार कर लिया था पर शिष्यगण मे पनपते सुविधावाद के सस्कारो का प्रवाह सर्वथा न रुक सका। ___ आधुनिक अनुसन्धानो के आधार पर यह घटना सम्राट विन्दुसार के युग की मानी गयी है । आर्य महागिरि का स्वर्गवास वी० नि० २४५ मे हुआ था। सम्राट सम्प्रति के राज्याभिषेक का समय बी० नि० २६५ है। आर्य महागिरि के स्वर्गवास के समय सम्राट् सम्प्रति का जन्म भी सम्भव नहीं है। अत यह घटना उस दुष्काल की परिकल्पना मानी गयी है जिस समय सम्प्रति का जीव द्रमुक के भव मे था, क्षुधा से आक्रात होकर आर्य सुहस्ती के पास उसने दीक्षा ग्रहण की थी। दुष्काल के उस, युग का शासक सम्राट् विन्दुसार था। वह महादानी एव
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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