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-१००जैन धर्म के प्रभावक आचार्य गति होती ? आप मेरे महा उपकारी है। पूर्व जन्म में आप मेरे गुरु थे। इस जन्म मे भी मैं आपको गुरु रूप मे रवीकार करता हूं। मुझे अपना धर्मपुत्र मानकर कर्तव्य-शिक्षा से अनुगृहीत करें और प्रसन्नमना होकर किसी विशिष्ट कार्य का आदेश दे, जिसे सम्पादित कर मैं आपसे उऋण हो सकू।" आर्य सुहस्ती के मुख से भवतापोपहारी अमृत वूदे वरसी-"राजन् । उभय लोक कल्याणकारी जिनधर्म का अनुसरण कर।"
आचार्य सुहस्ती से वोध प्राप्त कर सम्प्रति प्रवचन-भक्त, सम्यक्त्व गुणयुक्ता अणुव्रतधारी श्रावक बना। ____ कल्पचूणि के अनुसार सम्प्रति ने अवन्ति मे श्रमण परिवार परिवृत सुहस्ती को राज-प्रागण मे गवाक्ष से देखा। चिन्तन चला-जातिस्मरण शान उत्पन्न हुआ उसके बाद आचार्य सुहस्ती के स्थान पर जाकर उन्होने जिज्ञासा की-"प्रभो । 'धम्मस्स किं फल'-धर्म का क्या फल है ।" आर्य सुहस्ती बोले
"भव्यक्त सामायिक का फल राज्यपदादि की प्राप्ति है।" सम्प्रति ने विस्मित मुद्रामे कहा-"आपने सत्य सभापण किया है। क्या आप मुझे पहचानते है?" सम्प्रति के इस प्रश्न पर आर्य सुहस्ती ने ज्ञानोपयोग लगाकर कहा"तुमने पूर्व भव मे मेरे पास दीक्षा ग्रहण की थी। तदनन्तर सम्प्रति ने आचार्य सुहस्ती से श्रावक धर्म स्वीकार किया।"
निशीथचूणि के एक स्थल पर प्रस्तुत घटना सन्दर्भ के साथ विदिशा का और दूसरे स्थल पर अवन्ति का उल्लेख है। विदिशा को अवन्ति के राज्याधिकार में मान लेने से इस प्रकार का उल्लेख सम्भव है। ___ आवश्यक चूणि के अनुसार आर्य महागिरि एव सुहस्ती विदिशा में एकसाथ गए थे। उसके बाद आर्य महागिरि अनशन करने के लिए दशार्णवपुर की ओर चले गए तदनन्तर आर्य सुहस्ती का भवन्ति मे पदार्पण हुआ, उस समय सम्प्रति आर्य सुहस्ती का श्रावक बना था।
श्रमण भगवान महावीर के निर्वाणोत्तर काल में साभोगिक सम्बन्ध विच्छेद की सर्वप्रथम घटना आर्य सुहस्ती और सम्राट सम्प्रति के निमित्त से घटित हुई थी।
दुष्काल के विपन्न क्षणो मे सम्राट् सम्प्रति ने श्रमणो के लिए भिक्षा-सम्बन्धी अनेकविध सुविधाए प्रदान की थी। सभी प्रकार के व्यापारी वर्ग को सम्राट सम्प्रति का आदेश था-"वे मुक्त भाव से श्रमणो को यथेप्सित द्रव्यो का दान करें, उनका मूल्य मैं दूगा। मेरे घर का भोजन राजपिंड होने के कारण मुनिजनो के लिए ग्रहणीय नही है।" सम्राट् सम्प्रति की इस उदारता के कारण आर्य सुहस्ती के शासनकाल मे शिथिलाचार की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गयी। साधुचर्या में अजागरूक श्रमण मुक्त भाव से सदोष दान ग्रहण करने लगे।