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१०४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
फूट-फूटकर रोने लगी और विलपती हुई कहने लगी,"पुन, तुमने ससार को छोडा, मा की ममता और वधुओ का मोहपाश तोडा,। पर प्रवजित होकर एक ही अहोरात्रि की साधना कर प्राणो का परित्याग क्यो कर दिया ? क्या यही रात्रि तुम्हारे लिए कल्याणकर थी ? परिवार से निर्मोही बने क्या धर्मगुरु से भी निर्मोही वन गए ? सत परिवेश में एक बार मेरे आगन मे आकर भवन को पवित्न कर देते।"
पुत्र के और्व-दैहिक सस्कार के साथ भद्रा के मानस मे ज्ञान की लौ जल उठी। भद्रा की पुत्रवधुओ को भी भोगप्रधान जीवन से विरक्ति हो गयी। एक गभिणी वधू को छोडकर सारा का सारा परिवार आर्य सुहस्ती के पास दीक्षित हुआ।"
अवन्ति सुकुमाल के पुत्र ने पिता की स्मृति मे उनके देहावसान के स्थान पर जैन मन्दिर बनवाया था। वह आज अवन्ति मे महाकाल के नाम से प्रख्याति प्राप्त है। ___ आचार्य सुहस्ती के जीवन से सम्बन्धित श्रेष्ठीपुत्र अवन्ति सुकुमाल निर्मग्थ की यह घटना दुर्वल आत्माओ मे धैर्य का सम्बल प्रदान करने वाली है।
आचार्य सुहस्ती के शासनकाल मे गणधरवश, वाचकवश और युगप्रधान आचार्य की परम्परा प्रारम्भ हुई।
गण के दायित्व को सम्भालने वाले गणाचार्य, आगम वाचना प्रदान करने वाले वाचनाचार्य एव प्रभावोत्पादक, सार्वजनीन अध्यात्म प्रवृत्तियो से युगचेतना को दिशाबोध देने वाले युगप्रधानाचार्य होते है।
तीनो दायित्व उत्तरोत्तर एक-दूसरे से व्यापक है। गणाचार्य का सम्बन्ध अपनेअपने गण से होता है। वाचनाचार्य भिन्न गण को भी वाचना प्रदान करते है । युगप्रधान का कार्यक्षेत्र सार्वभौम होता है। जैन-जनेतर सभी प्रकार के लोग उनसे लाभान्वित होते है।
आर्य सुहस्ती का शिष्य परिवार विशाल था। उनसे कई नये गण निर्मित हुए। शिष्य स्थविर रोहण से उद्देहगण, स्थविर श्रीगुप्त से चारण गण, भद्र से उडुपाटित गण, स्थविर ऋषिगुप्त से मानव गण, स्थविर कामधि से वेशपाटिक गण का तथा गणिक, कामद्धिक आदि अनेक अवान्तर गणो का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली मे मिलता है। ___ आर्य सुहस्ती से जैन धर्म अत्यधिक विस्तार को प्राप्त हुआ। मगध की भाति अवन्ति और सौराष्ट्र प्रदेश भी धर्म का प्रमुख केन्द्र उनके शामनकाल मे बन गया था। तीस वर्ष की अवस्था मे दीक्षित होकर सत्तर वर्ष तक सयम धर्म की सम्यक् आराधना करने वाले आर्य सुहस्ती वी० नि० २९२ (वि० पू० १७६) मे अवन्ति में स्वर्गगामी बने।